कई वर्षों से जल रही इस भट्टी का उपयोग ठाकुर जी की रसोई तैयार करने के लिए किया जाता है। श्री राधारमण मंदिर में दीपक जलाने से लेकर प्रसाद तैयार करने में भी इस भट्टी का इस्तेमाल किया जाता है।
इस भट्टी व रसोई के बारे में बताते हुए सेवायत श्रीवात्स गोस्वामी कहते हैं कि यह भट्टी हमेशा जलती रहती है। हर रोज इस्तेमाल में आने वाली 10 फुट की इस भट्टी को रात के वक्त ढक दिया जाता है।
सबसे पहले इसमें लकड़ियां डाली जाती हैं और इसके बाद ऊपर से राख उढ़ा दी जाती है ताकि इसकी ज्वाला शांत न हो। दूसरे दिन सुबह फिर से उपले व लकड़ियों को इसमें डालकर जला दिया जाता है।
मंदिर के दूसरे सेवायत आशीष गोस्वामी ने कहा कि रसोई के अंदर बाहर का कोई व्यक्ति घुस नहीं सकता है। सिर्फ सेवायत ही अंदर प्रवेश कर सकते हैं और वह भी केवल धोती पहनकर। एक बार अंदर जाने के बाद पूरा प्रसाद बनाकर ही बाहर आ सकता है अन्यथा नहीं। अगर किसी कारणवश बाहर जाना भी पड़े तो दोबारा अंदर घुसने के लिए फिर से नहाना पड़ेगा।
इस भट्टी का एक रोचक इतिहास है जिसके अनुसार, वर्ष 1515 में चैतन्य महाप्रभु वृंदावन आए थे। उस वक्त तीर्थों के विकास की जिम्मेदारी उन्होंने 6 गोस्वामियों को सौंपी। इनमें से एक गोपाल भट्ट गोस्वामी थे जो दक्षिण भारत के त्रिचलापल्ली में स्थित श्रीरंगम मंदिर के मुख्य पुजारी के पुत्र थे।
चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए गोपाल भट्ट हर रोज द्वादश ज्योतिर्लिंग की आराधना करते थे। दामोदर कुंड की यात्रा के दौरान वह इस द्वादश ज्योतिर्लिंग को वृंदावन में लाए थे। वर्ष 1530 में गोपाल भट्ट को चैतन्य महाप्रभु ने अपना उत्तराधिकारी बनाया और 1533 में चैतन्य महाप्रभु की लीला पूर्ण हुई।
1542 ई. की बात है। नृसिंह चतुर्दशी के दिन सालिगराम शिला के पास गोपाल भट्ट की नजर एक सांप पर पड़ी। उन्होंने जब उसे हटाना चाहा तो वह शिला राधारमण के रूप में प्रकट हुई।
इसी साल वैशाख पूर्णिमा के दिन मंदिर में इसकी स्थापना की गई। उस दौरान गोपाल भट्ट ने मंत्रों के मध्य अग्नि प्रविष्ट की थी।