मुहर्रम मुस्लिम का कोई त्यौहार नहीं बल्कि, अधर्म पर धर्म की जीत का प्रतीक माना गया है। यह दिन पैगंबर मोहम्मद के पोते हुसैन इब्न अली की मौत की याद दिलाता है
हजारों साल से शिया उपासक उनकी याद में बड़ी संख्या में उपस्थित होकर पैगंबर मोहम्मद के पोते हुसैन इब्न अली को याद कर उनकी मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हैं। पर अफगानिस्तान के इस शहर में शोक व्यक्त करने का तरीका कुछ अलग है। यहां के उपासक इस्लामिक कैलेंडर में पहले महीने के दसवें दिन में आशूरा के दिन अपने शरीर का रक्त निकालकर अपना दुख व्यक्त करते हैं। इतना ही नही, यहां पर खून की होली खेलने जैसा माहौल बन जाता है लोग अपने बच्चे के सिर पर तलवार चलाकर खून निकालने से भी नही चूकते हैं। एक बार तो लेबनान में एक शिया मुस्लिम ने असुरों की याद में अपने सिर को तलवार से ही काट लिया था।
10 अक्टूबर 680AD का दिन मातम मनाने और धर्म की रक्षा करने वाले हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करने वाला दिन होता है। मान्यता है कि 10वें मोहर्रम के दिन ही इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत इमाम हुसैन ने अपने प्राण त्याग दिए थे। वैसे तो मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का महीना है लेकिन आमतौर पर लोग 10वें मोहर्रम को सबसे ज्यादा तरीजह देते हैं। इस दिन हल साल अफगानिस्तान, ईरान, इराक, लेबनान, बहरीन और पाकिस्तान में एक दिन का राष्ट्रीय अवकाश होता है। अपनी हर खुशी का त्याग कर देते हैं।
आशुरा का महत्व
आशुरा मुहर्रम के महीने में मुसलमान शोक मनाते हैं मान्यताओं के अनुसार बादशाह यजीद ने अपनी सत्ता कायम करने के लिए हुसैन और उनके परिवार वालों पर जुल्म किया और 10 मुहर्रम को उन्हें बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिया। हुसैन का मकसद खुद को मिटाकर भी इस्लाम और इंसानियत को जिंदा रखना था। अधर्म पर धर्म की जीत हासिल करने वाले पैगंबर को इतिहास कभी भी नही भूल पायेगा।