वैसे समस्या थोड़ा वजनदार शब्द लगता है जो अपने आप में भीषण और वरिष्ठ विपरीत परिस्तिथियों को समेटे है। इस भारी-भरकम शब्दावली से अलग हटकर सबसे पहले महिलाओं के मूलभूत परेशानियों की कहानियों में एक स्त्री की भूमिका शासक या प्रताड़क के रूप में क्या, क्यों और कितनी है, ये समझना होगा। ये टटोलना होगा कि एक स्त्री दूसरे स्त्री का स्त्री के रूप में कितना सम्मान करती है। स्त्री को स्त्री की परेशानियों और जरूरतों के प्रति कितनी संजीदगी और सहानुभूति है और क्या एक स्त्री वाकई में स्त्रीत्व को समाहित किए हुए है?
एक स्त्री, स्त्री तभी है जब वो हर रूप में माँ है। ममता का कोमल भाव और शक्ति स्त्री का मूल गुण है। इस मातृत्व के गुण को सिर्फ अपने बच्चों के प्रति नहीं, बल्कि सारे रिश्तों में संजोना और जीना ही स्त्री का होना है।
कोख में अजन्मी बच्ची को मारने का ख्याल लाने वाली स्त्री दादी, नानी, बुआ या माँ के रूप में असफल है क्योंकि वह स्त्री के रूप में असफल है। घर में पुरुषों की हठधर्मिता चाहे जितनी भी सुदृढ़ हो, अगर घर की स्त्रियां ठान ले तो कम से कम भ्रूण हत्या, दहेज़, घरेलू हिंसा जैसी समस्याओं से स्त्री-जगत बहुत हद तक आज़ाद हो सकता है। मगर ये अक्सर देखा गया है कि पोते की लालसा, बहू के यहाँ से कपड़े-गहने, गाड़ी -पैसे की कामना स्त्रियां भी पालती हैं। कोख में बेटी है तो उसे कोख में ही मार देने की सलाह देने वाली क्या वाकई नारी है? कई माँ भी लड़कियां नहीं चाहती और स्वयं बिना किसी उधेड़बुन के अपने ही बच्चियों को कोख में मार देती हैं विशेषकर पहले से लड़कियां हो तो।
लड़कियों के परवरिश को ना जाने किस अर्थशास्त्र के अनुसार क़र्ज़ या बोझ मान लिया गया है। अगर हर माँ ये सुनिश्चित कर ले कि वो बहू से पोते की उम्मीद नहीं करेगी या हर माँ तय कर ले कि उसके लिए बेटा-बेटी सामान होगा तो कल शायद ऐसी स्तिथि नहीं रह जाएगी। बहू लाने के पहले से ही मांगों की लम्बी फेहरिस्त बनाने में औरतें भी कम नहीं होती हैं। बहू चाहे कितना भी दहेज़ लाये उसे तानों से भरने का काम भी एक स्त्री ही करती है जो सास या ननद के रूप में रहती है। बहू की सुगढ़ता की नापनी भी इन्हीं स्त्री-रूपा रिश्तों के हाथ में होती है। बुरे वचनों से दिन की शुरुआत और रात-रात तक कर्कश बातों से कान छलनी भी एक स्त्री ही करती है। यहाँ तक कि कई घटनाओं में बहू को ज़िंदा जला देने या मार देने में सास-ननद भी नामज़द अभियुक्त होती हैं।
क्या एक स्त्री के रूप में उनकी संवेदनशीलता पर धूल जम जाती है जो उस माँ-बाप की आर्थिक असमर्थता नहीं समझ पाती जो सक्षमता से ज्यादा ही अपनी बेटी को दान-दहेज़ देते हैं? गौर फरमाने की बात ये है कि एक माँ के रूप में ये स्त्रियां दहेज़, घरेलू हिंसा जैसी शर्मनाक घटनाओं के खिलाफ होती हैं। परन्तु स्त्री की संवेदनशीलता कुछ ख़ास रिश्तों के प्रतीकों के रूप में गुम सी हो जाती है। बेटी को पढ़ाने में भी कोताही बरत दी जाती है क्योंकि पढ़-लिख कर कमाने लगी तो ससुराल को ही धन देगी। ऐसे में उसके पढ़ाई पर फिजूलखर्ची क्यों हो भला! दुःख इस बात का ज्यादा है कि पढाई-लिखाई बंद करवाने में भी स्त्री ही आगे रहती है।
घर में पीरियड्स का छुआछूत की इन्तिहाँ भी घर की औरतें ही पार करती हैं। कई मकड़जाल सी सोचों में बंधी वो कई बार एक स्त्री के खिलाफ ही खड़ी दिखती हैं। इन रोजमर्रा की कठिनाइयों में एक स्त्री स्वयं कितनी भी पीड़ित हो मगर वह इन्हीं परेशानियों के लिए दूसरे स्त्री के प्रति प्रायः संवेनशून्य जान पड़ती है।
खुद पर जो परेशानियां गुजरती हैं, या जो कष्ट होता है, या असुविधा होती है, ठीक उन्हीं कठिनाइयों के लिए एक स्त्री दूसरे स्त्री के प्रति कितनी संवेदनशील होती है? स्त्री पहले घर के अनादर की परेशानियों से निजात पाने की कोशिश करे। चर्चा एवं विचार इन पर भी हो। बाकी बाहर तो समस्याएं चुनौती के रूप में डरावनी शक्लों में इंतज़ार में बैठी ही रहती हैं। जरुरत है स्त्री अपने स्त्रीत्व का रक्षण और पोषण करे। इससे वह सशक्त भी होगी और अनुपम भी! कई बार इन सारे परेशानियों को स्त्री अपना भाग्य समझ बुझे मन से स्वीकार लेती है। मगर ऐसी स्वीकृति अस्वीकार्य है क्योंकि मन में विश्वास और उम्मीद के साथ अगर वो एकजुट होकर इन सारे कुकर्मों और कुविचारों के खिलाफ खड़ी हो जाती है तो निश्चय ही विजयश्री उसकी ही है।