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‘शिक्षा’ का एक अर्थ सीख ही तो है

Published: Sep 07, 2018 05:44:17 pm

इसमें विषय को सीखने – गुनने के भाव भी अधिक

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‘शिक्षा’ का एक अर्थ सीख ही तो है

शिक्षा से जुड़ी हूँ और पढ़ते -पढ़ते कब बच्चों ने शिक्षिका बना दिया पता ही न चला। जाने कितना पढ़ना बाक़ी है और कितना सीखा पाऊँगी यह सब भविष्य के गर्त में है, पर यह जो ज़िंदगी है न हर क़दम पर कुछ न कुछ सिखाती रहती है और उसी सीख को छोटों को देने की कोशिश रहती है कि कोई अन्य उस तरह चोटिल न हो जैसे कि हम। हमें जिस तरह हमारे अग्रजों ने बढ़ना अपने अनुभवो से सिखाया , बच्चे भी ठीक वैसे ही आगे बढ़ते रहें।
‘शिक्षा’ का एक अर्थ सीख तो है ही पर मूल अर्थ किसी विद्या या विषय को सीखने, जानने, गुनने के भाव से अधिक है।

शिक्षा छ: वेदांगों में से भी एक है~

“छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते
जे योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्
तस्मात्सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥”
अर्थात् वेद यदि पुरुष(मानव) है तो छन्द को वेदों का पैर , कल्प को हाथ,ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक, व्याकरण को मुख कहा गया है। शिक्षा में वस्तुत: वेदों के वर्ण , स्वर , मात्रा आदि का निरूपण है।
शिक्षा शब्द पर ही बात करते चले तो जीवन एक शिक्षक है जो कि गुरु की भूमिका में होता है और यह जीवन अपनी उठापठक से जो धौल पीठ पर जमाता है या कि शिक्षा देता है ,जो सिखाता है, जो तालीम वह देता है वही शिक्षण कहलाता है। तो मेरे ख्याल से जीवन से बड़ा कोई भी शिक्षक न हुआ है न ही होगा । यूँ यह जीवन एक बड़ा शिक्षणालय (शिक्षण+आलय) हुआ जहाँ पर हम सभी प्रकार की शिक्षा ग्रहण करते
हैं।
बीते साल एक छात्रा का चहक के साथ फ़ोन आया शुभकामनाओं के लिए इस बार शुभकामनाएँ तो थीं पर चहक कहीं गुम थी । हर जीवन का अवधि सापेक्ष अपना पाठ होता है, जिसे वही समझ पाता है , जो जी रहा होता है, हम बस देखते रह जाते हैं।
शिक्षक शिक्षक की भूमिका में विद्यार्थी बना रहकर ही जीवन पर्यन्त रह सकता है। अहं से विलग रहकर सतत ज्ञान में रमा रहे तो ही , जैसे कोई साधक समाधिवस्था को प्राप्त करना चाहता है , ठीक वैसे ही । इस प्रक्रिया में किताबें अहम भूमिका निभाती हैं इसलिए तो कहा गया है कि किताबें ज्ञान का द्वार हैं।
आज के नवयुवा गुगल, वॉट्सऐप से अधिक जुड़े हैं और किताबों से दूर है। मैं बिलकुल हमारे गाँव और क़स्बे के विद्यालयों और महाविद्यालयों की बात कर रही हूँ जहाँ जो बच्चे हैं वो किताबों से बहुत दूर हो चले हैं और समझ के अभाव में इक अधूरे सच को पूरा सच मान बैठते हैं । तो ऐसे में एक शिक्षक की भूमिका स्वयं बढ़ने के साथ -साथ अपने छात्र को भी किताबों से जोड़ने की होनी चाहिए।
किताबें धैर्य सिखाती हैं वे प्रज्ञा का विकास करती हैं और इस प्रकार वैचारिक बनाती हैं ।किताबें पढ़कर सहज ही धैर्य रखना आ जाता है और वैचारिकता की जड़ें भी मज़बूत हो जाती हैं। युवा पीढ़ी से सीधे जुड़ी हूँ और कई उदाहरण भी देखे हैं चाहे वह वाद प्रतिवाद की बात हो या किसी अन्य प्रतियोगिता का हिस्सा हो। आज का विद्यार्थी शब्दों को गुनना नहीं सीख पाता है वह शब्दों की उस अर्थवत्ता को नहीं जान पाता है और यूँ वह एक अपना नितांत इकहरा, अधूरा सा और कच्चा पाठ तैयार कर लेता है । शिक्षक की भूमिका उसे उस दिशा में ले जाने की हो जहाँ वो उस पाठ को पूरा नहीं तो उस तक पहुँचने का प्रयास कर सके।
जिसने यह मर्म जान लिया वही शिक्षित हुआ, जो यह सिखा पाया वह शिक्षक हुआ और यूँ हम सभी अपनी शिशुता से चैतन्यता की ओर अग्रसर हुए कभी शिक्षक बन तो कभी शिक्षार्थी बन।
साभार -फेस बुक वाल से

विमलेश शर्मा

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