scriptपरीक्षा फल जीवनफल नहीं है | Exam result is not the final result of life | Patrika News

परीक्षा फल जीवनफल नहीं है

Published: May 14, 2018 01:23:26 pm

आज की प्रतियोगिता की दुनिया में बेहतर से बेहतर विद्यालयों में नाम लिखाने के लिए कड़ा मुकाबला है जिसका दबाव माता-पिता भी महसूस करते हैं।

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दसवीं और बारहवीं बोर्ड का परीक्षाफल आने वाला है। जैसे-जैसे परीक्षाफल की घड़ी पास आती जा रही है बच्चों और उनके अभिभावकों के माथे पर चिंता की लकीरें देखी जा सकती हैं। ये वो समय होता है जब मेहनत का प्रतिफल अंकों के रूप में मिलता है जो करियर की बुनियाद रखता है। विशेषकर बारहवीं की परीक्षा के नतीजे बच्चों के विषय और कॉलेज निर्धारण में बड़ी भूमिका निभाते हैं। आज की प्रतियोगिता की दुनिया में बेहतर से बेहतर विद्यालयों में नाम लिखाने के लिए कड़ा मुकाबला है जिसका दबाव माता-पिता भी महसूस करते हैं।
कॉलेज की बात तो दूर आज तो किंडरगार्डन और प्रिपरेटरी स्कूलों में नन्हे-मुन्नो के नामांकन के लिए भी कम मशक्कत नहीं होती फिर बोर्ड के बाद तो मामला भविष्य का होता है। बच्चा पढ़ने में बहुत तेज़, सामान्य या औसत हो यह दबाव कमोबेश सब अनुभव करते हैं। मगर अंकों के दबाव में कई बार जीवन दब जाता है। जीवन में सफलता की कुंजी हम अंकों और डिवीज़न को मान बैठे हैं। शिक्षा का अर्थ अंक और डिग्री बटोरना हो गया है। ऐसे में बच्चों का सहमना लाज़मी है। कच्ची उम्र होती है और बच्चे ये दबाव झेल नहीं पाते। कई बार यह दबाव अभिभावकों की तरफ से भी होता है। ऐसे में कोमल मन अंदर ही घुटता है जिसका दुष्परिणाम मानसिक अवसाद और आत्महत्या के रूप में सामने आता है।
छात्रों में बढ़ते आत्महत्या की घटनायें प्रश्नचिन्हित और शर्मसार करने वाले हैं। प्रधानमन्त्री मोदीजी ने भी गत वर्ष ” मन की बात” में छात्रों को अंकों के परिणाम से अवसादमुक्त रहने की सलाह दी थी। आंकड़ें वाकई भयावह हैं और इस पर जागरूकता की जरुरत है। 2015 के डब्लूएचओ के रिपोर्ट अनुसार आत्महत्या में भारत का स्थान पच्चीसवें नंबर पर है। इन आंकड़ों को बारीकी से खंगाला जाए तो कई चैंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे। भारत के परिपेक्ष्य में आत्महत्या सिर्फ किसानों तक सीमित नहीं है। एनसीआरबी के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है। इसका मुख्य कारण परीक्षाओं में असफलता, कम नंबर आना, माता- पिता का दबाव, पढ़ाई में दिल ना लगना प्रेम प्रसंग आदि है। हम बढ़ते बच्चों के कही-अनकही बातों को समझ नहीं पाते हैं। अब समय आ गया है कि बच्चों के मन और भाव को समझने और भांपने के लिए हमें स्वयं डॉट्स जोड़ने होंगे।
2016 में एक ऑनलाइन कॉउंसलिंग सेवा ”योर दोस्त” ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि असफल होने का डर, अभिभावकों द्वारा करियर की पसंद जबरन थोपना और मानसिक अवसाद तथा सामजिक कलंक प्रायः छात्रों को आत्मघाती बनने के लिए उकसाता है। जब मन की व्यथा समझने वाला कोई नहीं हो और अभिभावकों की ओर से भी पढ़ाई का दबाव हो तो ऐसी स्तिथि में छात्र स्वयं को बहुत असहाय महसूस करता है। घोर मानसिक अवसाद के चपेट में वह स्वयं की जान लेने में भी हिचकिचाता नहीं है। यह स्तिथि माता-पिता और शिक्षकों के लिए अलार्मिंग है। बच्चों के कोमल मन को समझने और उन्हें समझाने की जरुरत है।
आत्महत्या मनचाही मौत नहीं बल्कि अनचाही मौत है। इसके कारणों पर चाहे दोषारोपण करके मामले को रफा दफा कर दिया जाए, मगर यह कभी भी न्यायसंगत एवं नीतिसंगत नहीं होगा। घरवालों के उम्मीद के बोझ को ढ़ोते बच्चे ज़िंदगी से दूर होते चले जाते हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है कि माता-पिता बोर्ड के अंकों को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लेते हैं। ऐसे कई केस हाल-फिलहाल के वर्षों में घटित हुए हैं जिसमें बच्चों ने स्वयं को माता-पिता के मन मुताबिक़ अंक नहीं लाने की वजह से आत्महत्या कर ली।
बच्चों के हँसते-मुस्कुराते चेहरे अच्छे लगते हैं। उनके चेहरों पर शिकन और उदासी अच्छी नहीं लगती। उम्र के इस पड़ाव पर कई सवालों और असमंजस में घिरे बच्चे खुद को अकेला महसूस करते हैं। इसके अलावा नन्ही उम्र में ही वो सामाजिक दबाव भी महसूस करने लगते हैं। जैसे विषय या सवाल को ठीक से ना समझ पाने की स्तिथि में भी वो कक्षा के ”पीयर प्रेसर” में दुबारा नहीं पूछते हैं।
अवसाद से घिरे बच्चे मानसिक तनाव में रहते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में कई विसंगतियां देखने को मिल जाती है। किशोरों में बढ़ती यौन कुंठा और हिंसा ऐसे ही तनावों की परिणति है। परीक्षाफल जीवन फल नहीं है। माता-पिता का ये कर्तव्य है कि वो बच्चों के पढाई-लिखाई में यथा संभव बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रेरित करें मगर जीवन को एकमात्र इसी दृष्टिकोण से ना देखें। स्वस्थ मन और मष्तिष्क उज्जवल भविष्य के लिए सबसे जरुरी है।
अपनी आकांक्षाओं को बच्चों पर ना लादें। बच्चों की असफलता को भी स्वीकारें और उन्हें भी स्वीकारने के लिए मजबूत बनाए ताकि वो दोगुने उत्साह और तैयारी से पुनः परीक्षा की तैयारी कर सकें। फिर भी बच्चों में अगर अवसाद या चिड़चिड़ेपन के लक्षण दिख रहे हैं तो एक्सपर्ट की सलाह लेने में हिचकिचाइए नहीं। बच्चों के प्रतिभा को मात्र अंकपत्रों से ना आंकें। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ औसत अंक लाने वालों या असफल होने वाले छात्रों ने भी दुनिया में नाम किया है। इस बार तो केंद्रीय बोर्ड के प्रश्नपत्र लीक होने की वजह से भी बच्चे काफी तनाव में रहे हैं। इसलिए बेहतर है बच्चों के मानसिक और भावनात्मक सम्बल बना जाए।
– स्वाति

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