देवता के प्रसाद चढ़ाने में भले उनकी जान-जाए या चाहे आर्थिक दृष्टि से नुकसान उठाना पड़े फिर भी लोग उन घटनाओं को होनी मानकर अपने देवता को निर्दोष मानते रहते हैं। यदि देवता में दम था तो वह उनके उस समय हो रहे नुकसान को बचा लेता, पर दुनिया की अंधी भक्ति और अंधी भेड़चाल ने हमारा सारा सामाजिक परिवेष दूषित कर दिया है।
सच्ची भक्ति जिन लोगों ने जान ली है वे सच्ची भक्ति, दया और गरीब को बराबर समझने, ऊँच-नीच की खाई को पाटने के अलावा दूसरी बात की नहीं मानते। गरीब की उपेक्षा न करके अपना मान लेना ही सच्चा पुण्य प्राप्त करना है, न कि मन्दिरों में जाकर घण्टों खड़े रहकर-चंचल मन के साथ इधर-अधर दृष्टिपात करना।
मेलों में जहाँ आदमियों को लुटते और जान से हाथ धोते देखा गया है वहीं, व्यभिचार और बलात्कार जैसे मामलों में इज्जत को मिट्टी में मिलते-मिलाते भी देखा-सुना गया है। पेषेवर बदमाष और गुण्डे अच्छी सम्भ्रांत महिलाओं एवं लड़कियों को छेड़ते हैं, जिससे कि व्यभिचार की भावनाओं को प्रक्षय मिलता है। मेलों के खाद्य भी बीमारियों के जन्मदाता हैं। सड़ी-गली चीजों से बनाया गया वह सस्ता खाद्य-पेट खराब करता है जिससे कि अधिकांष लोग बीमार होते पाए गए हैं।
घूमने के लिए हम मेले के दिन को ही ज्यादा ठीक क्यों समझें ? घूमने तो कभी भी या कहीं भी जाया जा सकता है। भीड़-भाड़ से भरे इस दूषित वातावरण में घूमना-फिरना स्वास्थ्य की दृष्टि से भी कतई ठीक नहीं है। यदि फिर जाएं भी तो गहने या अधिक नकदी लेकर क्यों जाए। खरीद की चीजें आम दिनों की भांति बजार से भी मनपसन्द सुन्दर और टिकाऊ अपनी सुविधा से खरीदी जा सकती हैं। अच्छा यही है कि हमें मेलों में कभी भी न जाने की कसम खानी चाहिए और प्रगतिषीलता के इस युग में मेलों की उपेक्षा करनी चाहिए अन्यथा मेले, जान के लिए झमेले बन सकते हैं।