हिन्दी की रचनाएँ पढ़ते हैं तो लगता है अंग्रेजी का अनुवाद के भाव और भाषा में ही अंग्रेजियत नहीं, मान्यताएँ तक अंग्रेजी की हैं। आलोचना में तो आप चालीस प्रतिशत उद्धरण और विचारधारा भारतीय ही पाएँगे कुछ डॉक्टरों ने भाषा विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें लिखकर सम्मान यह पा लिया है कि वे उसके विशेषज्ञ हैं। पर उनको यह ज्ञात नहीं है। आज बोलियों का रूझान किधर है या वहाँ नए कितने शब्द और मुहावरे आ गए हैं।
दूसरी और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में एक वर्ग ऐसा जुड़ा हुआ है जिन्हें या तो अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती या काम चलाऊ अंग्रेजी भी जिनके बस का रोग नहीं है। अतः चिढ़कर वे हिन्दी की वकालात करते हैं। हिन्दी भाषा संस्कृत से मिलती है। एक समय था कि इस देश में आर्यवर्त के राजभाषा आदि सब कामों में संस्कृत लिखी पढ़ी जाती थी। यवनों का राज्य आने से पहले रोबकारी और परवाने आदि सब उस समय की भाषा में लिखे जाते हिन्दी भाषा को इस देश के सब खण्डवासी सुगमता से समझ लेते हैं।
अंग्रेजी को सब नहीं समझ सकते और वह अब तक सर्वसाधारण मनुष्यों में नहीं फैली है, क्योंकि बादशाही और अंग्रेजी की पाठशालाएँ बिठलाकर और राजघर भाषा बनाकर इसके फैलने के बड़े-बड़े उपाय किए फिर भी सर्वसाधारण मनुष्यों ने अंगीकार नहीं किया है।
इस कारण सर्वसाधारण मनुष्यों की प्रथम शिक्षा हिन्दी भाषा ही के द्वारा उचित है। क्योंकि जैसा अंग्रेजी का लिखना-पढ़ना छः वर्ष में आता है, उससे उत्तम हिन्दी भाषा का पढ़ना-लिखना छः महीने में आ जाता है। हिन्दी भाषा की पाठशाला बढ़ाकर इस समय की पाठशालाओं में हिन्दी व अधिक प्रचार करके हिन्दी भाषा के द्वारा प्रथम शिक्षा फैलाने की रीति बहुत अच्छी है। परन्तु जब तक हिन्दी भाषा को राजघर भाषा न बनादी जाए तब तक हिन्दी के द्वारा शिक्षा फैलाने में सु-मता न हो-ी और जिस समय हिन्दी भाषा, राजघर भाषा हो -ई तो प्रथम शिक्षा हिन्दी भाषा के द्वारा स्वतः फैल जाएगी यह काम बड़ी सुग मता से हो सकता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी के बारे में हमारी मानसिकता में पूरी तरह बदलाव होना आवश्यक है। कई हिन्दी प्रसार संस्थाएँ अपनी संस्था में विधाथियों की संख्या में का-जी बढ़ोतरी करके अनुदान की राशि बढ़वा लेती हैं। जबकि इसके विकास और विस्तार में वे कोई योग दान नहीं कर पाती। यही वजह है कि सरकारी काम-काज हिन्दी के प्रति ईमानदार नहीं हो पाता।
विभिन्न प्रान्तों को हम हिन्दी के लिए क, ख और – क्षेत्रों में बाँटकर राजभाषा का प्रसार और प्रचलन करें, यह कोई ठोस कारण नहीं है। हमें पूरे देश के लिए एक दृष्टिकोण अपनाने के साथ विदेश मंत्रालयों में भी इसे सख्ती के साथ ला-ू करने का खतरा सिर पर लेना हो-ा। इसके अभाव में हिन्दी लिखने के काम भले आ जाए आम जन-जीवन के लिए नहीं बन सकती।
चन्द्रकान्ता शर्मा