Poetry: काश कि कविता, रोटी होती अपने हाथ से गूँथती है आटाचकले पर बेलन से बेलती है रोटीऔर फिर गरम तवे पर सेकती है रोटी।मैं भी शब्दों में उड़ेलता हूँभावों का जलकाग़ज़ पर कलम सेगढ़ता हूँ कोई अन्तराचिन्तन की आग परजब पकाता हूँ उसेतब कहीं बनती है कविता।जैसे ध्यान रखना होता हैआटा गूँथते समयपानी की मात्रा कारोटी बेलते समयबेलन के दबाव काऔर पकाते समय आँच का।ठीक वैसे ही कविता के लिएध्यान रखना होता हैभावों का, शब्दों के विन्यास काऔर चिन्तन के ताप का।बहुत साम्यता हैरोटी और कविता के सृजन में।जैसे कविता ख़ुराक है मन कीवैसे ही रोटी ख़ुराक है तन कीहर दिन वह रोटी बनाती है सुबहो शाममैं चाहता हूँ कविता भी करे रोटी का कामकाश कि कविता, रोटी होती[typography_font:14pt;” >दुनिया कभी न भूखी सोती । टीकम ‘अनजाना’