scriptवर्तमान में जैन धर्म की प्रासंगिकता | Jain Religion and its importance in todays world | Patrika News

वर्तमान में जैन धर्म की प्रासंगिकता

Published: Nov 02, 2017 03:59:24 pm

यूं कहें आज के “Logical World” में जैन धर्म हर चीज़ की लॉजिक सहित व्याख्या करता है।

jain religion

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– डॉ. शिल्पा जैन सुराणा

कहते है कि पूरा संसार नियमो से चलता है। मनुष्य जगत के भी अपने नियम होते है। यहां तक कि प्रकृति के कण कण में भी अपने नियम है। धर्म क्या है? शायद ही कोई व्यक्ति इसे परिभाषित कर पाए पर अंत में सब इस बात पर सहमत है कि असली धर्म वही है जो मनुष्य को मनुष्य होने का अहसास कराए, धर्म सिर्फ जीने की कला नही सीखता, बल्कि मरने की कला भी सिखाता है। जीवन का अर्थ केवल प्राण धारण करना नही है, सिर्फ सांस लेना नही है, बल्कि किस तरीके से जीवन को जीना है इसी का मार्ग हमे धर्म सीखता है।
जैन धर्म अपने आप मे अद्भुत है, क्योंकि ये विश्व का एक ऐसा धर्म है जो विज्ञान को अपने साथ देता है, या यूं कहें आज के “Logical World” में जैन धर्म हर चीज़ की लॉजिक सहित व्याख्या करता है। महावीर ने जीने के उपाय बताए वे जैन जीवनशैली के महत्वपूर्ण अंग है। महावीर का पहला सूत्र था- हमारे जीवन मे घृणा का कोई स्थान नही होना चाहिए। इसका अर्थ है कि एक आदमी दूसरे आदमी के साथ समानता का व्यवहार करें। आज संसार मे सबसे बड़ा दुख है कि मनुष्य अपने अलावा दुसरो की भूल रहा है, आगे बढ़ने के चक्कर मे वो दुसरो को धक्का देने से नही कतराता। यदि हम स्वस्थ जीवन जीना चाहते है तो सबसे पहले घृणा को त्यागे।
जैन जीवनशैली का दूसरा सूत्र है- शांतवृति। जीवन मे आवेश न हो, उतेजना न हो। जैसे को तैसे की भावना न हो। प्रारम्भ से ही बच्चे में ऐसे संस्कार निर्मित हो जिससे कि शांतिपूर्ण जीवन जीने के सुख का रहस्य वो समझ जाएं। आज समस्या ये है कि लोग छोटी छोटी बातों में आवेश में आ कर न सिर्फ अपना बल्कि अपने परिवार का जीवन भी कष्टमय बना देते है। जैन धर्म सिखाता है कि मन की शांति को जीवन मे कैसे उतारे। हमारी जीवनशैली ऐसी हो, जिसमें हमे कर्तव्यों का भान हो, पर आवेश का भूत सिर पर सवार न हो। शांतवृति का प्रयोग जैन जीवनशैली का महत्वपूर्ण सूत्र है। इसको व्यवहारिक रूप में अमल में लाने वाला व्यक्ति कभी दुखी नही रहता। अगर घर मे शांति हो तो उन्नति अपने आप होगी, बच्चे संस्कारवान होंगे, कलहपूर्ण वातावरण में बच्चे के कोमल मन मे जो घाव पनपते है वो जीवन पर्यंत नही भरते।
खतरनाक अपराधियों पर किये हए शोध में ये साफ हुआ कि इनमें 80 प्रतिशत अपराधी ऐसे थे जिन्हें अपने बचपन मे अच्छा वातावरण नही मिला। आज बड़े क्या बच्चे भी तनाव में है, अशांत मन आगे कैसे बढ़ेगा? शायद ही किसी के पास इसका जवाब है। आत्महत्या का आंकड़ा बढ़ रहा है, परिवारिक कलहों के चलते मौत या मर्डर की खबरे अखबारों की सुर्खियां बनती है। इसीलिए आवश्यक है कि एक जैन श्रावक शांतवृति को अपने जीवन मे उतारे, ताकि उसके पारिवारिक जीवन मे तनाव न आये। क्या कोई सपने में भी सोच सकता था कि कोई जैन श्रावक दहेज के लिए किसी लड़की की हत्या करेगा? बड़े बड़े घोटालों में आज जैन समाज से जुड़े लोग लिप्त है।
एक जैन व्यक्ति सोचता है कि पानी छाने बिना नही पीना है, एक चींटी भी मर जाये तो उसका दिल कांप उठता है, उसी समाज मे ये हरकते सोच जताने वाली है, वजह ये है हमने धर्म के मर्म को पहचानना छोड़ दिया है, पाखण्ड औऱ धर्म के वास्तविक रूप में अंतर करना जरूरी है। जैन जीवनशैली का तीसरा रूप है- श्रममय जीवन जीना, श्रमयुक्त जीवन जीना। गांधीजी ने श्रम स्वावलंबन को व्रत के रूप में स्वीकार क़िया। प्रश्न है कि इसका मूलस्रोत कहाँ है? इसका मूलस्रोत है श्रमण परंपरा। भगवान महावीर ने स्वावलंबन पर बहुत बल दिया। उत्तराध्ययन सूत्र में स्वावलंबन से होने वाली उपलब्धियों का वर्णन है। श्रम और स्वावलंबन जैन धर्म के मुलसूत्र है। जिस व्यक्ति के जीवन मे श्रम और स्वावलंबन नही होता क्या वो वास्तव में आत्म कर्तव्य के सिद्धान्त को सही अर्थ में स्वीकार करता है?
जैन दर्शन का सिद्धान्त है- आत्मा ही सुख दुख की कर्ता है। इस संदर्भ में दूसरे का श्रम लेने की बात कहां तक तर्कसंगत है? दूसरे का शोषण करने की बात कहां फलित होती है? जो व्यक्ति स्वावलंबन का विकास करेगा, वह दूसरे के श्रम का शोषण नही करेगा। ज्यादा काम लेना और उसके बदले कम पारिश्रमिक देना शोषण ही तो है। जो जैन धर्म का श्रावक है उसका यह कर्तव्य बनता है कि वो किसी के श्रम का अनादर न करे, किसी के श्रम का मज़ाक न उड़ाए ये बात हमारा जैन श्रावक समझ ले तो शायद उसका जैन होना सफल हो जाएं। हमेशा न्यायोचित तरीके से अर्थ का अर्जन करे, गलत तरीके से अर्जित किया धन कभी व्यक्ति के पास नही ठहरता।
जैन जीवनशैली का चौथा सूत्र है- अहिंसा। पुराने जमाने मे जैन लोग बहुत ही अभय थे, युग की शताब्दियों में ये क्रम बदला और थोड़ा भय व्याप्त हो गया। पहले क्षत्रिय लोग जैन ज्यादा थे। जैन धर्म मूलतः क्षत्रियो का धर्म था, यह व्यापारियों का धर्म नही रहा। जैन धर्म पराक्रम का धर्म था। अधिकांश तीर्थंकर क्षत्रिय ही थे। जब यह क्षत्रियो से व्यापारियों के हाथ मे आया, अभय का विकास धीरे धीरे कम होता गया। व्यापारी वर्ग डरता है, उसका सारा ध्यान व्यापार में धन बचाने में लगा रहता है। जहाँ बचाने की सारी बात होती है वहाँ भय का होना स्वाभाविक है। आज स्थिति ये है कि जैनियो पर आरोप लगते है कि वे कायर है पर क्या ये वास्तविकता है।
जब तक हिंदुस्तान पर जैन धर्म का प्रभाव था तब तक हिंदुस्तान कभी कायर नही रह। सम्राट चंद्रगुप्त का समय देखे उन्होंने सभी जैन राजाओ को एकता के सूत्र में पिरो रखा था। हिंदुस्तान परतंत्र बना आपसी झगड़ों ओर फुट के कारण। हिंसा की वजह से सम्पूर्ण विश्व मे विध्वंसकारी स्थिति बनी हुई है, ऐसे में जैन धर्म का अहिंसा का सिद्धान्त न केवल जैन धर्मावलंबियों के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए कल्याणकरी है। श्रावको को ये संकल्प लेना चाहिए कि किसी भी हिंसा में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाग नही लेंगे। आत्महत्या, भ्रूण हत्या आदि का आंकड़ा समाज मे बढ़ रहा है, जो व्यक्ति जैन जीवनशैली को मानता है वो कभी भी ऐसा नही करेगा। इतना ही नही वो क्रूरतापूर्ण तरीके से बनी हिंसाजनक प्रसाधन सामग्री का इस्तेमाल नही करेगा।
जैन जीवनशैली का पांचवा सूत्र है- इच्छा परिमाण। इच्छाओं का कोई अंत नही, वे असीमित है, शायद विश्व की इस विध्वंसक स्थिति का कारण ही मनुष्य का न खत्म होने वाला लालच है, मनुष्य ने किसी को नही छोड़ा, न ही वनों को, न जंगली जानवरों को, न समुंद्री प्राणियों को। पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा गया है, हर दिन वैज्ञानिकों का नया शोध सामने आता है कि धरती का अंत निकट है। इसका जिम्मेदार कौन है? क्या हमारी इच्छाये जो कभी खत्म नही होती इसके लिए जिम्मेदार नही, अगर हम वास्तव में जैन है तो सबसे पहले अपनी इच्छाओं का सीमाकरण करे, जैन श्रावक कभी भी परिग्रह नही करेगा। जहां पर इच्छायें असीमित होती है वहीं असंतोष होता है। जैन जीवनशैली का छठा सूत्र है- व्यसन मुक्त जीवन जीना। जैन जीवनशैली से जीने वाला व्यक्ति कभी भी जुआ नही खेलेगा, नशीले पदार्थों से दूर रहेगा। मगर विडंबना देखिये कि आज की पीढ़ी इस सत्य से दूर भाग रही है, उन्हें इस बात का अहसास तब होता है जब बात हाथ से निकल जाती है।
वास्तव में देखा जाए आज जैन धर्म की प्रासंगिकता आज सबसे ज्यादा है। अगर हमे अपनी आने वाली पीढ़ी को एक अच्छा जीवन प्रदान करना है तो बचपन से ही उनमें ये संस्कार डाले। जैन धर्म अब सिर्फ धर्म न रहे बल्कि एक आदत बने। विनाश के कगार पर खड़ी ये धरती चीख चीख के आह्वान कर रही है मुझे बचा लो….तो आगे आइये उसकी सहायता कीजिये। अपनाइये जैन धर्म के सार को, अपनाइये जैन जीवनशैली को। जो आत्मिक सुख का आभास आपको होगा, वो शायद लाखो करोड़ो की सुख सुविधाओं से भी नही मिलेगा।
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