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साख और साक्षी शब्दों के मायने

Published: Sep 13, 2018 10:40:47 am

‘साखी’ शब्द संस्कृत के साक्षी का अन्यतम रूप है और इसका अर्थ है वह मनुष्य जिसने किसी वस्तु घटना को अपनी आंखों से देखा हो।

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‘साखी’ शब्द संस्कृत के साक्षी का अन्यतम रूप है और इसका अर्थ है वह मनुष्य जिसने किसी वस्तु घटना को अपनी आंखों से देखा हो। वस्तुत: साक्षात् अनुभव द्वारा ही किसी वस्तु, घटना या प्रघटना का यथार्थ ज्ञान होना संभव है; जिसके कारण साक्षी या साक्षी शब्द उस मनुष्य से संबंधित हुआ जो किसी विषय पर विवाद खड़ा होने पर निर्णय करते समय उसे प्रमाण के साथ समझा सके, स्पष्ट कर सके ।

इस प्रकार साक्षी का अर्थ गवाह और दर्शक भी हुआ। परन्तु यहाँ देखने में विशेष प्रकार से देखना शामिल है।
हमारे साहित्य में संतों की सिद्धांतपरक बानियों के लिए भी इसी साक्षी शब्द से विनिर्मित ‘साखी’ शब्द भी इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ। वस्तुतः साक्षी से ही साखी शब्द बना है जिसमें क्ष वर्ण लोक में ख में प्रचलित/प्रयुक्त हुआ लोक में एक मुहावरा प्रयुक्त है ‘साखी पुकारना’ अर्थात् गवाही देना। इसी तरह और देखें तो लोक में एक शब्द साखना भी प्रयुक्त होता रहा है, जिसका अर्थ साक्षी देना या गवाही देना हुआ। दैनिक जीवन में नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और नाना प्रकार की अन्यान्य व्यवहारिक उलझनों से निवृत्त होने के लिए हर व्यक्ति को समय-समय पर ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। अनुभवजन्य साखियाँ ऐसे दुरूह समय में वास्तविक मार्ग दिखाती हैं जिसका अनुसरण कर हर जीवन अपने कल्याण की और अग्रसर हो सकता है। इसीलिए कबीर कहते हैं-

साखी आंँखी ज्ञान की, समुझी देखु मन माहिं ।
बिनु साखी संसार का, झगरा छुटत नाहिं।।(बीजक)

इसका अर्थ हुआ कि यदि अच्छी तरह विचार करके देखा जाए दो अनुभवजन्य साक्ष्य(साखी) वास्तव में ज्ञान रूपी आँखों का काम करते हैं क्योंकि साक्षी पुरुष के समान इन्हें तत्व निर्णायक मानकर इनके द्वारा यदि हम चाहें तो अपना भव-बंधन तक छुड़ाने में समर्थ हो सकते हैं और कर्म-अकर्म के बंधन से मुक्त हो सकते हैं।

साक्षियों संबंधी प्राचीनतम ग्रंथ गोरखनाथ की वाणी तथा जोगेश्वरी साखी है। गोरखनाथ तथा उनके अन्य अनुयायियों ने अनेक साखियों की रचना की इसके पश्चात् हम कबीर साहब के बीजक में अनेक विषयों पर साखियाँ देखते हैं।

कबीर बहुत ही सहज भाव से इनमें अपना अनुभव उँडेलते हैं –
मसि कागद छूवों नहीं, कलम गहों नहीं हाथ।
चारिउ जुग के महात्मा, कबीर मुखिह जनाई बात।।

(साखी के काव्यशास्त्रीय लक्षणों में यह दोहे का ही समरुप है, पर्याय है। इस तरह यह मात्रिक अर्द्धसम छंद है। जिसमें मात्राओं का क्रम 13,11 का रहता है।)

साक्षी के साक्षात् अर्थ से ही साक्षात्कार (इंद्रिय ज्ञान) आदि शब्द भी प्रयुक्त हुए।

साख का एक अर्थ प्रतिष्ठा से भी हुआ, लोक में हम कहते हैं कि फलां की साख दाव पर लगी है। इसी से लोक में एक शब्द साखोचारन भी प्रयुक्त होता है। यह विवाह के अवसर पर प्रयुक्त होता है जिसमें वर और वधू के वंश वृक्ष का परिचय दिया जाता है, उसे ही साखोचारन कहते हैं।

साखियाँ वस्तुतः जीवनाभिव्यक्तियाँ हैं। यूँ ये शिक्षक हुई पर हम इनसे कितना सीख पाते हैं, यह तो हम पर ही।

विमलेश शर्मा

साभार – फेसबुक वाल से

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