वे एक समाज सेविका और लेखिका भी हैं। पुराने दिनों को याद कर लैला कहती हैं- मुझे हिंदी नहीं आती थी, इसलिए लोग मेरा मजाक बनाते थे। दूसरों पर गुस्सा करने की जगह मैंने निर्णय लिया कि मैं पूरी तरह से भारतीय बनकर दिखाउंगी। और ऐसा मैंने करके दिखाया। आज तैयबजी की संस्था लाखों भारतीयों के जीवन का सहारा है। 1970 में तैयबजी को गुजरात में कच्छ के ग्रामीण दस्तकारों से मिलने का मौका मिला। उनका हुनर देख वे हैरान रह गईं, साथ ही इस बात पर दुखी भी हुईं कि उनके हुनर को बाजार तक पहुंचाने वाला कोई नहीं है।
वे बताती हैं-उनकी परेशानियां जानने के बाद मन में सभी ग्रामीण दस्तकारों को संस्था के माध्यम से एकजुट करने का विचार आया। इस तरह 1981 में मैंने पांच महिलाओं के साथ मिलकर दस्तकार खोला। समय के साथ बाकी महिलाएं अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो गईं, वहीं मैं दस्तकार के साथ लगी रही, डटी रही और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश करती रही। धीरे-धीरे दस्तकार मेरी पहचान बन गया। 70 साल की उम्र में भी तैयबजी सक्रिय जीवनशैली जीती हैं। उनका
काम दूसरों का जीवन बेहतर बना रहा है, इस बात का अहसास उनमें प्रेरणा भरता रहता है।
तैयबजी बताती हैं- मेरी परवरिश दूसरी लड़कियों से थोड़ी अलग हुई थी। मैं फुंहफट थी, 70 के दशक में सडक़ों पर बाइक चलाती थी। मुझे याद है कि फेमिनिस्ट कमला भसीन ने एक बार मुझसे कहा भी था कि चूंकि मैं पैरों पर नेलपेंट लगाती थी, इसलिए दूसरे लोगों की तरह उन्हें भी पहले लगा था कि मैं पार्टी करने वाली मॉडर्न लडक़ी हूं। लेकिन जब उन्होंने मुझे बिहार के गांवों में काम करते देखा, तब मेरे प्रति उनका नजरिया बदल गया।
कहानी सोशल मीडिया पर लैला पुराने जमाने की साडिय़ों में अपनी फोटोज सोशल मीडिया पर पोस्ट करती हैं। इनके जरिए वे साबित करना चाहती हैं कि साडिय़ां
फैशन का सदाबहार हिस्सा हैं। फेसबुक पर एक कारीगरी गु्रप ने हैंडलूम को बढ़ावा देने के लिए उन्हें अपना पेज जॉइन करने का न्यौता दिया। इसके बाद तैयबजी ने अपनी कॉटन साड़ी वाली एक सेल्फी पोस्ट की। उसे इतने लाइक मिले कि फिर उन्होंने अपनी अलग-अलग साडिय़ों में 30 दिनों तक लगातार सेल्फी पोस्ट करने लगी। इस सीरीज को जबरदस्त प्रतिक्रिया मिली है।