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पैडमैन के बहाने बैड-मन दूर हो

Published: Feb 16, 2018 12:30:14 pm

स्त्रियां दकियानूसी सोच से बाहर निकलें

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– स्वाति

भारतीय फिल्म उद्योग में महिला प्रधान फिल्मों का सर्वथा अभाव ही रहा है। जो ऐसी फ़िल्में बनी भी हैं उनमें अधिकांश ऐतिहासिक या धार्मिक चरित्र पर हैं। महिला समस्याओं पर आधारित फ़िल्में एक्का-दुक्का दिख जाती हैं मगर एक ऐसी फिल्म जो पुरुष प्रधान होकर भी महिला के इर्द-गिर्द घूमे ऐसी फ़िल्में विरले हैं। ऐसे में पैडमैन जैसे फिल्मों का आना और उन्हें दर्शकों द्वारा भरपूर प्यार और समर्थन मिलना, इस बात की ओर इशारा करता है कि लोगों के लिए फ़िल्में सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं रह गई हैं।
दर्शक-दीर्घा विषय पर आधारित फिल्मों को पसंद करने लगे हैं जो कि सकारात्मक बदलाव की ओर इशारा करता है। पीरियड्स , माहवारी, रजस्वला, महीना आना या मेंसेस आना, कोई भी नाम ले लीजिये इस पर चर्चा करना तो दूर की बात है, ये शब्द ज़बान पर लाना भी बेहयाई का परिचायक है। इससे जुडी प्रथाएं, सोच, मान्यताएं, विचार और अभ्यास प्याज के छिलकों की तरह कई परत वाले तो हैं ही साथ में संकीर्ण समझ के दुर्गंध और वीभत्स परिणाम के आंसू भी समेटे हैं।
सबसे पहले तो उस रियल हीरो अरुणाचलम मुरगुनाथन को दिल से सलाम जिन्होंने इस प्राकृतिक प्रकिया को प्रक्रिया ही समझा मगर इससे जुड़ी समस्याओं को समस्या समझकर एक ऐसे मिशन की नींव रखी जो नारी-उत्थान के लिए प्राण वायु है। पीरियड्स के समय अपने पत्नी के अस्वस्थ-अस्वच्छ तरीकों और लोक लाज को देखकर मुरगुनाथन ने सस्ते सेनेटरी पैड को बनाने और इसे गरीब औरतों को सुलभ कराने के लिए पैड बनाने की मशीन का स्वयं अविष्कार किया। सिर्फ सस्ते पैड उपलब्ध हो जाना इससे जुड़ी समस्याओं का अंत नहीं है बल्कि इस विषय पर खुल कर बात करना और इससे जुडी मिथ्याओं से बाहर निकलना एक बड़ा मकसद है।
भारत की जनसाधारण की मानसिकता पीरियड्स को लेकर बहुत ही संकुचित है। छूआछूत का रोग इतना बड़ा है जितना शायद किसी ने कभी सामना नहीं किया हो। आधी आबादी जो अपने जीवन के अमूमन 35 साल, हर महीने के औसतन 4 दिन के हिसाब से जीवन काल के 1680 दिन/सवा चार साल इस प्रक्रिया में गुजारती है। पीरियड्स एक औरत का चुनाव नहीं होता है। यह कुदरती देन है जो उसे मातृत्व सुख देने के लिए आवश्यक है। फिर इतने महत्वपूर्ण प्रक्रिया पर जो समयावधि और आवश्यकता दोनों के आधार पर ना तो टाला जा सकता है ना इतर रास्ता अपनाया जा सकता है, उस पर चर्चा की जरूरत समाज परिवार को कब महससू होगी?
पारिवारिक माहौल की तो बात इतनी निराली और अनोखी है जो अब भी रजस्वला स्त्रियों की परछाई तक को किचेन, आचार, पापड़ से दूर रखती है। एवरेस्ट की ऊंचाई और ब्रम्हाण्ड की विशालता को नाप देने वाली स्त्रियां इस दकियानूसी सोच से बाहर नहीं निकल पा रही। आज भी कम या ज्यादा लगभग हर घर की यही कहानी है। क्या गांव और क्या छोटे शहर बड़े-बड़े शहरों में आज भी स्त्रियां माहवारी के समय किसी ने किसी रिवाज़ को ढ़ोती दिख जाती हैं।
यूनिसेफ के एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में पीरियड्स शुरू होने के बाद 20% लड़कियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं। इसकी एक वजह संकीर्ण सोच है और दूसरी अहम वजह स्कूल में टॉयलेट्स का ना होना है। नैपकिन तो बहुत कम जगह अपनी पकड़ बनाये हुए है, साफ़-सुथरे कपड़े का उपयोग भी नदारद है। अधिकांश महिलायें एक बार उपयोग में आ चुके कपड़े को ही बार-बार धोकर सूखा कर उपयोग में लाती है। तिस पर भी ना साफ़ से धोना ना धूप में सूखाना। सूखाने के लिए भी ऐसी जगह को चुना जाता है जिसपर किसी की नज़र ना पड़े जो अधिकतर घर का सीलन और बदबूदार कोना होता है। ऐसी कई दकियानूसी प्रथाएं और अंधविश्वास है जिसके अनुसार महिलाओं का तीन दिन तक नहाना भी वर्जित है।
जबकि सफाई की जरुरत इस समय सबसे ज्यादा होती है। गांवों में आज भी राख, सूखे पत्ते, पुआल का उपयोग कपड़े के तह में डालकर किया जाता है। कपड़ा भी सूती ना होकर कोई सिंथेटिक या बटन-हुक लगा होता है जिससे फ़ौरन संक्रमण फ़ैल सकता है। पीरियड्स के दौरान सफाई की सतर्कता ना बरता जाना कई तरह की रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इंफेक्शन को न्यौता देता है। जिसके भयंकर परिणाम में सर्वाइकल कैंसर भी है। इसके आलावा भयंकर पेट दर्द, जरुरत से ज्यादा ब्लीडिंग, बुखार, यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन, कैंडियेशिश बहुत आम बात हो गई है।
इस प्रक्रिया की अपनी शारीरिक जटिलता तो है ही जो हार्मोनल बदलाव की वजह से कई शारीरिक और मानसिक तनाव देती है मगर इसकी मान्यताएं परेशानियों को और बढ़ा देती है। अभी जरुरत है इस मसले पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता लाई जाए और सस्ते पैड उपलब्ध कराये जाए। साफ़ सूखे सूती कपड़े या पेड का उपयोग करना, हर 3-4 घंटे में इसको बदलना, पैंटी को ढंग से धोना और धूप में सूखाना, रोज़ नहाना, ढीले-ढाले कपडे पहनना आदि कुछ बुनियादी और जरूरी आदतें हैं जो इस समय बिना किसी शक के अपनाई जानी चाहिए।
इसके आलावा पानी या अन्य तरल पेय का ज्यादा से ज्यादा उपयोग, ज्यादा तेल-मसाला ना खाना, पीरियड्स के नियमितिता पर ध्यान रखना, ब्लीडिंग के समय सम्भोग ना करना कुछ अन्य आवश्यक अभ्यास होने चाहिए। ज्यादा शारीरक तकलीफ या अनियमितता की स्तिथि में डॉक्टर से जरूरर सम्पर्क करना चाहिए। मंगल ग्रह तक पहुँचने वाले भारत को पीरियड्स को एक आम कुदरती प्रक्रिया के रूप में अपनाना होगा और प्रत्येक स्त्री तक साफ़-सस्ते पैड उपलब्ध कराना होगा।
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