पौराणिक काल से खेला जाता है बग्वाल पत्थर युद्ध देवीधुरा का ऐतिहासिक बग्वाल मेला असाड़ी कौतिक के नाम से भी प्रसिद्ध है। हर साल रक्षा बंधन के मौके पर बग्वाल खेली जाती है। चार खामों और सात थोक के लोगों के मध्य खेली जाती है यह अछ्वुत बग्वाल। माना जाता है कि देवीधूरा में बग्वाल का यह खेल पौराणिक काल से खेला जा रहा है। कुछ लोग इसे कत्यूर शासन से चली आ रही पारंपरिक त्यौहार मानते हैं जबकि कुछ अन्य इसे काली कुमाऊं से जोड़ कर देखते हैं। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पौराणिक काल में चार खामों के लोगों द्वारा अपनी आराध्या बाराही देवी को मनाने के लिए नर बलि देने की प्रथा थी।
मां बाराही की आराधना को दी जाती है नरबलि मां बाराही को प्रसन्न करने के लिए चारों खामों के लोगों में से हर साल एक नर बलि दी जाती थी। बताया जाता है कि एक साल चमियाल खाम की एक वृद्धा परिवार की नर बलि की बारी थी। परिवार में वृद्धा और उसका पौत्र ही जीवित थे। माना जाता है कि महिला ने अपने पौत्र की रक्षा के लिए मां बाराही की स्तुति की। मां बाराही ने वृद्धा को दर्शन दिये और कहा जाता है कि देवी ने वृद्धा को मंदिर परिसर में चार खामों के बीच बग्वाल खेलने के निर्देश दिये। तब से बग्वाल की प्रथा शुरू हुई। बग्वाल बाराही मंदिर के प्रांगण खोलीखांण में खेली जाती है। इसे चारों खामों के युवक और बुजुर्ग मिलकर खेलते हैं।
सज-धजकर खेलते हैं होली लमगडिय़ा व बालिग खामों के रणबांकुरे एक तरफ जबकि दूसरी ओर गहड़वाल और चमियाल खाम के रणबांकुरे डटे रहते हैं। रक्षाबंधन के दिन सुबह रणबांकुरे सबसे पहले सज-धजकर मंदिर परिसर में आते हैं। देवी की आराधना के साथ शुरू हो जाता है अछ्वुत खेल बग्वाल। बाराही मंदिर में एक ओर मां की आराधना होती है दूसरी ओर रणबांकुरे बग्वाल खेलते हैं। दोनों ओर के रणबांकुरे पूरी ताकत व असीमित संख्या में पत्थर तब तक चलाते हैं जब तक एक आदमी के बराबर खून न गिर जाए। बताया जाता है कि पुजारी बग्वाल को रोकने का आदेश जब तक जारी नहीं करते तब तक खेल जारी रहता है। इस खेल में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता है। पूरे मनोयोग से बग्वाल खेली जाती हैं।
युद्ध खेलने वालों को मानने होते हैं ये नियम यह भी मान्यता है कि इस खेल में कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं होता है। किसी का सिर फूटता है तो किसी का माथा। अंत में सभी लोग गले मिलते हैं। कुछ घायलों को प्राथमिक उपचार दिया जाता है। बग्वाल मेला कमेटी के अध्यक्ष खीम ङ्क्षसह लमगडिय़ा और भुवन चंद्र जोशी के अनुसार बग्वाल खेलने के लिए कोई नियम और कायदा कानून तय नहीं है लेकिन इसकी पहली शर्त है कि तन तथा मन की शुचिता अवश्य हो। एक सप्ताह पहले से सभी रणबांकुरे स्त्री, मांस- मदिरा और तामसिक चीजों से दूर रहकर अनुशासित जीवन जीते हैं। प्रचलित मान्यता है कि मैदान में डटने से पहले सभी रणबांकुरे घरों से अपनी मां का आर्शीर्वाद लेकर आते हैं।
यहां बग्वाल की मान्यता और लोकप्रियता इस हद तक है कि प्रवासी लोग तथा सीमा पर मौजूद सैनिक भी हर साल इस मौके पर घर पहुंचते हैं। यहां यह भी मान्यता है कि मां बाराही की पूजा आंखों में पट्टी बांधकर की जाती है। खुद मंदिर के पुजारी भी ऐसा ही करते हैं। बताया जाता है कि मां बाराही की मूर्ति में इस कदर तेज है कि बिना पट्टी के देखने से आंखों को नुकसान हो जाता है। हर साल गुरना और टकना थोक के पुजारी ही हर साल पूजा अर्जना करते हैं जबकि फुलाराकोट थोक के निवासी बाराही धाम में सेवक की भूमिका अदा करते हैं। बग्वाल के अगले दिन मां की शोभायात्रा के साथ असाड़ी कौतिक खत्म हो जाता है। मेला समिति के कीर्ति वल्लभ जोशी ने बताया कि इस वर्ष का बग्वाल मेला सांगी पूजन के साथ मंगलवार से शुरू हो गया है लेकिन आज इसका विधिवत् उद्घाटन हुआ।