गत वर्ष विश्व आर्थिक मंच की दावोस में बैठक के दौरान ताकत मिलने का लोगों की सोच पर होने वाले असर को समझने की कोशिश की गई। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, जनरल मोटर्स, गोल्डमैन सेक व गेट्स फाउंडेशन के सीइओ भी शामिल थे। इस बातचीत में निष्कर्ष निकला कि ताकत मिलने से लोग नहीं बदलते है। उनमें पहले से मौजूद भावनाएं प्रबल हो जाती हैं। मैसेजिंग ऐप स्लेक के संस्थापक व सीइओ स्टीवर्ट बटरफील्ड कहते हैं कि जो चीज आपके व्यक्तित्व या सोच में पहले से मौजूद है, ताकत या दबदबा बढऩे से वही व्यवहार को बदलने का कारण बनती है। मनोवैज्ञानिक ताकत को एम्पलीफायर कहते हैं जिसमें व्यक्ति का स्वाभाविक व्यवहार ज्यादा शोर के साथ गूंजता है।
अब्राहम लिंकन-निक्सन पर भी पड़ा असर
बात 1930 के दशक की है। कानून की डिग्री लेकर अपना पहला मुकदमा लड़ रहे युवा वकील को जज ने वकालत करने के लिए अयोग्य घोषित करने के लिए धमकाया क्योंकि जज की नजर में उसमें नैतिक सिद्धांतों की कमी थी। ये वकील रिचर्ड निक्सन थे जो आगे चलकर अमरीका के राष्ट्रपति बने और स्वीकार किया कि अपने मुवक्किल की अनुमति के बिना उन्होंने मुकदमे का रुख मोडऩे की कोशिश की थी। दूसरे थे, अब्राहम लिंकन जो ताकत मिलने के साथ भ्रष्ट होने का अपवाद बने। लिंकन की जीवनी लिखने वाले रोबर्ट ग्रीन कहते हैं कि रसूख का इस्तेमाल करने से वास्तविक रूप सामने आता है।
प्रभाव बढऩे से हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है
जब कुछ लोगों को रसूखात का अहसास कराया गया तो उन्होंने दूसरों से पूछे बिना अपनी राय व फैसले बताए। कुछ अधीनस्थों को मैनेजर की भूमिका दी गई तो उन्होंने बातचीत में सामने वाले पक्ष की शैली की परवाह किए बिना अपनी सूझबूझ से मोलभाव किया। ताकत का अहसास हमें सामाजिक दबाव से मुक्त करता है। प्रभाव बढऩे से आत्मविश्वास का सही रंग दिखाई देता है।
एक सवाल यह भी उठता है कि हमें कैसे पता चलेगा कि कोई भी व्यक्ति ताकतवर बनने के बाद कैसा व्यवहार करेगा? तो इसका एक तरीका है। पहले यह पता करना होगा कि फलां व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य, सिद्धांत और उनकी पहचान क्या है? क्या वे उदार हैं या फिर सिर्फ अपने स्वार्थ के बारे में ही सोचते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने एक और प्रयोग किया। एक समूह बनाकर कुछ टास्क दिए जिन्हें सहकर्मियों से करवाना था। उदारवादियों ने लंबे व उबाऊ टास्क अपने पास रखे और छोटे कार्य सहकर्मियों को दिए। स्वार्थी समूह को कोई अधिकार नहीं दिए थे और उन्होंने भी ऐसा ही किया। लेकिन जब उन्हें दबदबे वाला ओहदा दिया गया तो उन्होंने छोटे और आसान कार्य अपने पास रखे और मुश्किल व नीरस कार्य सहकर्मियों को दे दिए। लेखक रॉबर्ट कैरो के अनुसार ताकत से भ्रष्टाचार बढ़ता है, यह जुमला शक्तिशाली लोगों को बचाने का जुमला बन गया है। स्वार्थी नेता अपने निजी फायदे के लिए हमेशा ताकत व प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं। सेवक नेता सामाजिक कल्याण में इसका सदुपयोग करते हैं। लेकिन ताकतवर लोगों का असली चरित्र जानना है तो देखिए कि वे शक्तिविहीन लोगों के साथ कब और कैसा व्यवहार रखते हैं।
ताकत बेपर्दा कर देती है
एक अध्ययन में शामिल छात्रों में से 26 फीसदी में सामाजिक दबदबे को लेकर अधिक आक्रामकता थी। 12 फीसदी में अहंकार भरा था। निष्कर्ष निकला कि ताकत आदमी का दिमाग खराब नहीं करती बल्कि जो पहले से ऐसे हैं उनको बेपर्दा कर देती है।
वाशिंगटन पोस्ट से विशेष अनुबंध के तहत