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बस्तर कश्मीर नहीं है लेकिन वहां की स्थिति कश्मीर से कम भी नहीं है। आतंकी वहां भी थे, यहां भी हैं। विकास वहां भी बाधित था, यहां भी है। समस्याएं दोनों की एक सी अवश्य प्रतीत होती हैं लेकिन हैं नहीं, इसलिए समाधान अलग-अलग हैं। चूँकि केंद्र बस्तर है, बात इसी पर करते हैं। अतीत को कुरेदने से समझ आएगा कि सरकारें आईं और गईं, बस्तर का विकास केवल कागजों में दिखा, यथार्थ में जंगल संकुचित हो गए, आदिवासी अपने ही घर में अप्रवासी बन कर रह गए और लोकतंत्र की छाती पर सवार हो गया नक्सलतंत्र।
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समाज हो या देश, शांति और विकास का प्रस्फुटन लोकतान्त्रिक ढांचे में ही संभव है। बस्तर के आदिवासी ने सदा अपने मताधिकार का प्रयोग किया, हालाँकि उसके एवज में उसे जो मिला वो गौण है। पिछले तीन महीनों में सरकार और सुरक्षा तंत्र ने जिस तरह नक्सलियों को बस्तर के जंगलों से उठा कर इतिहास की पुस्तकों की कुछ लाइनों में दुस्वपन के रूप में समेत दिया उससे आदिवासी उत्साहित हैं। आम चुनाव 2024 के प्रथम चरण में बस्तर ने उसी उत्साह का प्रदर्शन कर लोकतंत्र पर अपना फिर से भरोसा जताया है। अब विकास को धरातल पर उतारने की जिम्मेदारी सरकार की है।