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ग्वालियर

जानिये कहां और कैसे शुरू हुई शिवलिंग की पूजा

दुनिया में शिवलिंग पूजा की शुरूआत होने का गवाह ऐतिहासिक और प्राचीनतम जागेश्वर महादेव का मंदिर है।

ग्वालियरMar 07, 2016 / 05:38 pm

rishi jaiswal

दीपेश तिवारी @ ग्वालियर

दुनिया में शिवलिंग पूजा की शुरूआत होने का गवाह बना ऐतिहासिक और प्राचीनतम जागेश्वर महादेव का मंदिर उत्तराखंड के अल्मोडा जिले के मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर देवदार के वृक्षों के घने जंगलों के बीच पहाडी पर स्थित है।


इस मंदिर परिसर में पार्वती, हनुमान, मृत्युंजय महादेव, भैरव, केदारनाथ, दुर्गा सहित कुल 124 मंदिर स्थित हैं जिनमें आज भी विधिवत् पूजा होती है।


भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को देश के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक बताया है और बाकायदा इसकी घोषणा करता एक शिलापट्ट भी लगाया गया है ।मंदिर के मुख्य पुजारी के अनुसार एक सचाई यह भी है कि इसी मंदिर से ही भगवान शिव की लिंग पूजा के रूप में शुरूआत हुई थी ।यहां की पूजा के बाद ही पूरी दुनिया में शिवलिंग की पूजा की जाने लगी और कई स्वयं निर्मित शिवलिंगों को बाद में ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाने लगा
मुख्य पुजारी के अनुसार  यहां स्थापित शिवलिंग स्वयं निर्मित यानी अपने आप उत्पन्न हुआ है और इसकी कब से पूजा की जा रही है इसकी ठीक ठीक से जानकारी नहीं है, लेकिन यहां भव्य मंदिरों का निर्माण आठवीं शताब्दी में किया गया है. घने जंगलों के बीच विशाल परिसर में पुष्टि देवी (पार्वती), नवदुर्गा, कालिका, नीलकंठेश्वर, सूर्य, नवग्रह सहित 124 मंदिर बने हैं

वैसे हमारे शास्त्रों में भारतवर्ष में स्थापित सभी बारह ज्योतिर्लिंग के बारे में कुछ इस तरह से कहा गया है-
सोराष्ट्र सोमनाथ च श्री शेले मलिकार्जुनम ।
उज्जयिन्या महाकालमोकारे परमेश्वर ।
केदार हिमवत्प्रष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम ।।
वाराणस्या च विश्वेश त्रम्ब्कम गोमती तटे।।
वेधनात चिताभुमो नागेश दारुकावने ।
सेतुबंधेज रामेश घुश्मेश तु शिवालये ।।
द्वादशे तानि नामानि: प्रातरूत्थया य पवेत ।
सर्वपापै विनिमुर्कत : सर्वसिधिफल लभेत ।।
इसे दोहे में एक शब्द है नागेश दारुकावने इस शब्द की एक व्याख्या कुछ इस प्रकार हैं, दारुका के वन में स्थापित ज्योतिर्लिंग, दारुका देवदार के वृक्षों को कहा जाता हैं, तो देवदार के वृक्ष तो केवल जागेश्वर में ही है ।

शिवपुराण के मानस खण्ड में है जिक्र:
मुख्य पुजारी के अनुसार दुनिया में भगवान शिव की लिंग के रूप में पूजा की शुरूआत इसी मंदिर से हुई थी और इसका जिक्र शिवपुराण के मानस खण्ड में हुआ है ।कई जानकारों के अनुसार जागेश्वर को ही नागेश्वर माना जाता है क्योंकि इस मंदिर के आसपास के अधिकांश इलाकों का नाम नाग पर ही आधारित है. बेरीनाग, धौलेनाग, लियानाग, गरूड स्थानों से भी यह साबित होता है कि यह इलाका नाग बहुल था और इसी लिए इसका नाम नागेश्वर भी पडा लेकिन बाद में इसे जागेश्वर भी कहा जाने लगा. मानस खण्ड में नागेशं दारूकावने का जिक्र आया है ।दारूकावने देवदार के वन के लिए कहा गया है ।इससे इसे नागेश्वर का नाम भी दिया गया, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत यात्रा के दौरान यहां की यात्रा की थी और उसने इस मंदिर की प्राचीनता के बारे में जिक्र भी किया है ।


यह मंदिर साक्ष्यों के आधार पर करीब ढाई हजार साल पुराना है,और इस मंदिर की दीवारों की प्राचीनता इसकी गवाह है
यह मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगो में एक है, जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने भ्रमण के दौरान इसकी मान्यता को पुनर्स्थापित किया था। इस मंदिर समुह के मध्य में मुख्य मंदिर में स्थापित शिवलिंग को श्री नागेश ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है । इसी नाम का एक और ज्योतिर्लिंग द्वारिका के पास भी स्थापित है, जिसे श्री नागेश ज्योतिर्लिंग के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। जागेश्वर के इन मंदिरों का निर्माण पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं । मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी बखूबी प्रयोग किया गया है । इन मंदिर समूह कुछ मंदिर के शिखर काफी ऊँचे तो कुछ काफी छोटे आकार के भी हैं

जागेश्वर महादेव की यह है कथा
पुराणों के अनुसार रावण, मार्कण्डेय, पांडव व लव-कुश ने भी यहाँ शिव पूजन किया था, इतना ही नहीं भगवान शिव तथा सप्तऋषियों ने भी यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजयमें स्थापित शिवलिंगको कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।


मान्यता है कि शिव ने दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस कर सबका नाश कर दिया और चिता की भस्म से शरीर को आच्छादित कर झांकर सैम ( जागेश्वर से करीब 5 कि०मी० गरुड़ाबांज नामक स्थान पर) में तपस्या की। झांकर सैम को तब भी देवदार वन से आच्छादित बताया गया है। झांकर सैम जागेश्वर पर्वत में है। कुमाऊं के इस वन में वशिष्ठ मुनि अपनी पत्नियों के साथ रहते थे। एक दिन स्त्रियों ने जंगल में कुशा और समिधा एकत्र करते हुये शिव को राख मले नग्नावस्था में तपस्या करते देखा, गले में सांप की माला थी, आंखें बंद, मौन धारण किये हुये, चित्त उनका काली के शोक से संतप्त था। स्त्रियां उनके सौन्दर्य को देखकर उनके चारों ओर एकत्र हो गईं, सप्तॠषियों की सातों स्त्रियां जब रात में ना लौटी तो वे प्रातःकाल उनको ढूंढने को गये, देखा तो शिव समाधि लिये बैठे है और स्त्रियां उनके चारों ओर बेहोश पड़ी हैं। ॠषियों ने यह विचार कर लिया कि शिव ने उनकी स्त्रियों की बेइज्जती की है और शिव को श्राप दिया कि जिस इन्द्रिय यानी वस्तु से तुमने यह अनौचित्य किया है वह (लिंग) भूमि में गिर जायेगा, तब शिव ने कहा कि तुमने मुझे अकारण ही श्राप दिया है, लेकिन तुमने मुझे सशंकित अवस्था में पाया है, इसलिये तुम्हारे श्राप का मैं विरोध नहीं करुंगा, मेरा लिंग पृथ्वी में गिरेगा। तुम सातों भी सप्तर्षि तारों के रुप में आकाश में लटके हुये चमकोगे। अतः शिव ने श्राप के अनुसार अपने लिंग को पृथ्वी में गिराया, सारी पृथ्वी लिंग से ढक गई, गंधर्व व देवताओं ने महादेव की तपस्या की और उन्होंने लिंग का नाम यागीश या यागीश्वर कहा और वे ऋषि सप्तर्षि कहलाये। श्राप के कारण शिव का लिंग जमीन पर गिर गया और सारी पृथ्वी लिंग के भार से दबने लगी, तब ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूर्य, चंद्र और अन्य देव जो जागेश्वर में शिव की स्तुति कर रहे थे, अपना-अपना अंश और शक्तियां वहां छोड़्कर चले गये, देवताओं ने लिंग का आदि अंत जानने का प्रयास किया, ब्रह्मा, विष्णु और कपिल मुनि भी इसका उत्तर न दे सके, विष्णु पाताल तक भी गये लेकिन उसका अंत न पा सके, तब विष्णु शिव के पास गये औए उनसे अनुनय विनय के बाद यह निश्चय हुआ कि विष्णु लिंग को सुदर्शन चक्र से काटें और उसे तमाम खंडों में बांट दें। अंततः जागेश्वर में लिंग को काटा गया और उसे नौ खंडों में बांटा गया तथा शिव की पूजा लिंग रुप में शुरु की गई।
यह नौ खंड इस प्रकार हैं।
1- हिमाद्रि खंड
2- मानस खंड
3- केदार खंड
4- पाताल खंड जहां नाग लोग लिंग की पूजा करते हैं।
5- कैलाश खंड
6- काशी खंड- जहां विश्वनाथ जी हैं, बनारस
7- रेवा खंड- जहां रेवा नदी है. जहां पर नारदेश्वर के रुप में लिंग पूजा होती है, शिवलिंग का नाम रामेश्वरम है।
8- ब्रह्मोत्तर खंड- जहां गोकर्णेश्वर महादेव हैं, कनारा जिला मुंबई।
9- नगर खंड- जिसमें उज्जैन नगरी है।
इससे भी यह सिद्ध होता है कि महादेव की लिंग रुप में पूजा जागेश्वर से ही प्रारम्भ हुई।

घने देवदार के जंगलो में मध्य है जागेश्वर धाम:
उत्तराँचल राज्य के अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी दूर जागेश्वर धाम स्थित है, जागेश्वर उत्तराखंड के कुमाऊं खंड में बसा एक छोटा सा पहाड़ी क़स्बा है । जो घने देवदार के जंगलो में मध्य बसा बड़ा ही खूबसूरत, शांत और आस्था से भरपूर स्थल है । यहाँ का मौसम अक्सर सुहाना रहता हैं ।


जागेश्वर धाम के मंदिर एक प्राचीन मंदिरों का एल समूह हैं, जहाँ पर एक स्थान पर छोटे और बड़े सभी प्रकार के मंदिर मिलाकर करीब सवा सौ और पूरे धाम क्षेत्र के भी मंदिर मिला लिए जाए तो यह संख्या करीब देढ़ सौ से अधिक बैठती है । समुंद्रतल से लगभग 1820 मीटर (5460 फिट) ऊँचाई पर स्थित जागेश्वर के यह मंदिर अल्मोड़ा से करीब 40 किमी, पाताल भुवनेश्वर से 104 किमी और काठगोदाम से करीब 110 किमी दूरी पर हैं । जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वरऔर भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूणके नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगाके तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है। लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहारभगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिगोंमें से एक है।
यह मंदिर रेखा देवल शैली, पीठ देवल शैली और बल्लभी देवल शैली में बना हैमहामृत्युंजय मंदिर का निर्माण रेखा शैली में किया गया है, जबकि केदार और बालकेश्वर मंदिर का निर्माण पीठ शैली तथा पुष्टि देवी मंदिर बल्लभी शैली में बना हैमुख्य मंदिर के पास डंडेश्वर, वृद्ध जागेश्वर, ब्रह्म कुण्ड, कुबेर, बटुक भैरव, पंचमुखी महादेव मंदिरों के अतिरिक्त घने देवदार जंगल के चलते इसकी प्राचीनता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता, श्रावण महीने में भारी संख्या में यहां लोग आते हैं

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