लेकिन अफसोस..कि जिन बच्चों के नाम पर Children Day की शुरुआत हुई, वो बच्चे अब कहीं गुम होते जा रहे हैं। तेजी से बदलती जीवनशैली और संस्कृति बच्चों के अंदर के बचपन को कहीं दूर ले जा रही है। जिसके कारण आजकल के बच्चों में न तो वो शरारतें मिलती हैं, न मासूमियत और न ही निश्छल स्वभाव। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि आजकल ढूंढने पर भी चाचा नेहरू के वो ‘लाडले बच्चे’ नहीं मिलते। जानिए क्या कहना है इस बारे में बच्चों के अभिभावकों का।
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संयुक्त परिवार की संस्कृति का खत्म होना वजह
इस मामले में शहीदनगर निवासी डॉ. मोहनलाल अरोरा का कहना है कि बच्चों में खोते बचपन का बहुत बड़ा कारण है संयुक्त परिवार की संस्कृति का खत्म होना। पहले के समय में बच्चों को उनकी दादी और नानी तमाम कहानियां सुनाती थीं। घर के अन्य बड़े लोग बच्चों के साथ समय बिताते थे, खेलते कूदते थे। इसके कारण बच्चों की दुनिया परिवार के बीच विकसित होती थी। उनमें अच्छे संस्कार आते थे और निडरता व मासूमियत बरकरार रहती थी। लेकिन आजकल एकल परिवार की संस्कृति विकसित हो रही है। वहीं माता पिता दोनों ही कामकाजी हैं। ऐसे में बच्चों के साथ समय बिताने वाला कोई नहीं होता। लिहाजा बच्चे या तो अकेलेपन के कारण चिड़चिड़े व डरपोंक स्वभाव के हो जाते हैं, या फिर बाहर से गलत चीजों को सीखने लग जाते हैं।
आउडोर खेलों की ओर घटता रुझान
वहीं शास्त्रीपुरम निवासी राजेश्वरी राजपूत का कहना है कि पहले के समय में बच्चे काफी समय आउडोर खेलों में बिताते थे, बस एक मौका चाहिए होता था। इससे बच्चों का शरीर भी काफी हष्ट पुष्ट रहता था। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक दुनिया ने बच्चों का रुझान खेलों की ओर काफी कम कर दिया है। आजकल के बच्चे या तो टीवी से चिपककर कार्टून आदि देखने में समय बिताते हैं या फिर मोबाइल में। कार्टून देखकर बच्चे उन चीजों को सीखते हैं, जिनसे उन्हें कोसों दूर होना चाहिए। लिहाजा कम उम्र में ही उनका दिमाग गलत दिशा की ओर बढ़ने लगता है।
वहीं शास्त्रीपुरम निवासी राजेश्वरी राजपूत का कहना है कि पहले के समय में बच्चे काफी समय आउडोर खेलों में बिताते थे, बस एक मौका चाहिए होता था। इससे बच्चों का शरीर भी काफी हष्ट पुष्ट रहता था। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक दुनिया ने बच्चों का रुझान खेलों की ओर काफी कम कर दिया है। आजकल के बच्चे या तो टीवी से चिपककर कार्टून आदि देखने में समय बिताते हैं या फिर मोबाइल में। कार्टून देखकर बच्चे उन चीजों को सीखते हैं, जिनसे उन्हें कोसों दूर होना चाहिए। लिहाजा कम उम्र में ही उनका दिमाग गलत दिशा की ओर बढ़ने लगता है।
मोबाइल ने बढ़ाया तनाव
सिकंदरा निवासी नीलम अरोरा का कहना है कि तनाव जैसा शब्द पहले के बच्चे समझते तक नहीं थे, लेकिन आजकल के बच्चे इससे गुजर रहे हैं। इंटरनेट के जाल में बच्चे बुरी तरह फंस चुके हैं। ऐसे में सारा दिन किसी न किसी बहाने से मोबाइल में बिताना होता है। इसके अलावा दो साल की उम्र का होते ही बच्चों पर पढ़ाई का दबाव बनने लगता है और कुछ ही दिनों वो स्कूल, टूयूशन, कोचिंग के फेर में पड़ जाते हैं। ऐसे में बच्चों को अपना वास्तविक जीवन जीने का मौका ही नहीं मिलता। इस कारण से छोटे बच्चों में तनाव, चिड़चिड़ापन, चालाकियां, झूठ बोलने की आदत, गुस्सा, डिप्रेशन आदि तमाम खराब आदतें विकसित हो रही हैं।
सिकंदरा निवासी नीलम अरोरा का कहना है कि तनाव जैसा शब्द पहले के बच्चे समझते तक नहीं थे, लेकिन आजकल के बच्चे इससे गुजर रहे हैं। इंटरनेट के जाल में बच्चे बुरी तरह फंस चुके हैं। ऐसे में सारा दिन किसी न किसी बहाने से मोबाइल में बिताना होता है। इसके अलावा दो साल की उम्र का होते ही बच्चों पर पढ़ाई का दबाव बनने लगता है और कुछ ही दिनों वो स्कूल, टूयूशन, कोचिंग के फेर में पड़ जाते हैं। ऐसे में बच्चों को अपना वास्तविक जीवन जीने का मौका ही नहीं मिलता। इस कारण से छोटे बच्चों में तनाव, चिड़चिड़ापन, चालाकियां, झूठ बोलने की आदत, गुस्सा, डिप्रेशन आदि तमाम खराब आदतें विकसित हो रही हैं।