1861 में बसंत पंचमी के दिन हुई थी राधास्वामी मत की स्थापना, जानिए क्या है रहस्य
-राधास्वामी मत को आज 158 साल हो गए हैं। राधास्वामी मत को मानने करोड़ों लोग हैं
-स्वामी जी महाराज द्वारा स्थापित आम सत्संग 1866 में राधास्वामी सत्संग में परिवर्तित हो गया
-हजूरी भवन, पीपल मंडी में राधास्वामी मत के द्वितीय आचार्य हजूर महाराज की समाध है
आगरा। राधास्वामी मत की स्थापना 1861 में बसंत पंचमी के दिन हुई थी। आगरा की तंग पन्नी गली में हजूर महराज के आग्रह पर स्वामी जी महाराज ने राधास्वामी मत को प्रकट किया था। यही कारण है कि पन्नी गली में हजूर महाराज की साधना स्थली पर मत्था टेकना हर सत्संगी अपना कर्तव्य मानता है। राधास्वामी मत को आज 158 साल हो गए हैं। राधास्वामी मत को मानने करोड़ों लोग हैं। ये देश-विदेश में फैले हुए हैं। हजूरी भवन, पीपलमंडी, आगरा में आज भी आध्यात्मिक जागरण हो रहा है। यहीं पर द्वितीय आचार्य हजूर महाराज की समाध है। एक शोध का निष्कर्ष है कि हजूरी समाध पर की गई पच्चीकारी ताजमहल से भी सुंदर है। दयालबाग और स्वामी बाग भी राधास्वामी मत मानने वालों का केन्द्र बना हुआ है। स्वामी बाग में बना राधास्वामी मंदिर (दयालबाग मंदिर) की शान ही निराली है। आइए जानते हैं का राधास्वामी मत की स्थापना कैसे हुई।
18वीं शताब्दी 19 वीं शताब्दी के पुनर्जागरण के अभ्युदय से पूर्व साधारण जनता के मानस पटल पर मध्ययुगीन संतों के उपदेशों का प्रभाव समाप्त हो चुका था। धर्म, नैतिक शुचिता एवं आत्मशक्ति का स्रोत है, जैसी अवधारणा खंड-खंड हो चुकी थी। लोहे की कील पर चनला और झूलना जैसे मानव कष्टों के प्रति उदासीनता की वृत्ति अंधविश्वासों का ही परिचालन मात्र थी। प्रख्यात इतिहास जदुनाथ सरकार के शब्दों में – अठारहवीं शताब्दी में धर्म पाप और अज्ञान का अनुचर हो चुका था।
आध्यात्मिक प्रेरणा धर्म की सतत अवहेलना, पाश्चात्य के बढ़त दुष्प्रभाव, पुनर्जागरण काल में उठे आंदोलनों तथा ईसाई मिशनरियों के बढ़ते वर्चस्व का सामना करने और उसे विनिष्ट करने के लिए आध्यात्मिक पुनर्जागरण की आवश्यकता थी। विश्व के विभिन्न देशों में 19वीं शताब्दी में अनेक असाधारण प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों ने जन्म लिया। भारतीय जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में यह विलक्षण चमत्कार का समय था। सूक्ष्म अध्ययन के बाद यह परिलक्षित होता है कि चैतन्यता की व्यग्रता के पार्श्व में एक गहन आध्यात्मिक प्रेरणा देश की आत्मा में समाई हुई थी।
सुरत शब्द योग की नवीन विधि इसी सामाजिक परिवेश में वर्ष 1861 में आगरा (उत्तर प्रदेश) स्थित पन्नी गली के अपने आवास में परमपुरुष पूरनधनी स्वामी जी महाराज ने सुरत शब्द योग की नवीन विधि को सम्पूर्ण मानवता के हित में आम सत्संग में जारी कर दिया। वे सनातन अथवा पाश्चात्य के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त थे। उनके चिन्तन और दर्शन का न तो ईसाई धर्म ने प्रभावित किया और न ही अंग्रेजी शिक्षा ने। वास्तव में वे स्वयं दिव्य आध्यात्मिक चेतना के पुंज और साक्षात परम पवित्र के अवतार थे। दिव्य उपलब्धि एवं आत्म साक्षात्कार के माध्यम से उन्होंने सरल सुरत शब्द योग की विधि ईजाद की। इसी विधि का अभ्यास करते-करते द्वितीय गुरु परमपुरुष पूरनधनी हजूर महाराज को स्वयं तथा कुलमालिक के बीच विद्यमान ऐक्य और तादात्म्य से परिचित कराया। परमधाम राधास्वामी, परमपिता राधास्वामी हैं और उनमें तथा प्रथम गुरु स्वामी जी महाराज में कोई अंतर नहीं है, यह अनुभव करा दिया। इस अनुभव को 21 नवम्बर, 1861 को स्वामी जी महाराज के परमप्रिय शिष्य तथा उनके उत्तराधिकारी द्वितीय गुरु हजूर महाराज ने प्रकट कर दिया। प्रथम गुरु को हजूर पुरनूर राधास्वामी साहेब दयाल कहकर संबोधित करते हुए संपूर्ण संसार के लिए यह पवित्र भेद सार्वजनिक करने का अनुरोध किया।
1866 में राधास्वामी सत्संग में परिवर्तित स्पष्टता और सहजता के करण ही यह राधास्वामी मत भारतीय समाज में अभूतपूर्व ढंग से ग्राह्य हुआ। जन साधारण को इसमें शांति और परमतत्व से मिलने की आशा भरी करण दिखाई दी। इस प्रकार सन 1861 में हजूर महाराज की विनय पर स्वामी जी महाराज द्वारा स्थापित आम सत्संग हजूर महाराज को ही प्राप्त आंतरिक अनुभव के बाद वर्ष 1866 में राधास्वामी सत्संग में परिवर्तित हो गया।
राधास्वामी मते के आचार्य परमपुरुष पूरनधनी स्वामी जी महाराज परमपुरुष पूरनधनी हजूर महाराज परमपुरुष पूरनधनी लालाजी महाराज परमपुरुष पूरनधनी कुंवरजी महाराज दादाजी महाराज (वर्तमान आचार्य) प्रस्तुतः डॉ. अमी आधार निडर, आगरा
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