चार आना में मिलती थी प्रतिमाएं
प्रभाकरभाई का कहना है कि उनके पिताजी के समय में (१९२० ) गणपति की प्रतिमा चार आने में मिलती थी। वर्ष १९६० में कीमत बढ़कर तीन रुपए हो गई और अभ सबसे छोटी प्रतिमा की कीमत ३०० रुपए हो गई है।
रेलवे के सेवानिवृत्त अधिकारी प्रभाकर के पिता भावनगर की चिकनी मिट्टी से साढ़े तीन फीट की ईको फ्रेंडली गणेश प्रतिमा बनाते थे, जो परम्परा आज भी जारी है।
सिर्फ गायकवाड़ के गणपति का होता था सुरसागर में विसर्जन उनका कहना है कि शहर में १९६० तक विश्वामित्री नदी बारह महीने बहती थी। शहर के लोग विश्वामित्री नदी के घाट अथवा घर में गणपति की प्रतिमा का विसर्जन करते थे। सिर्फ गायकवाड़ के ही गणपति का सुरसागर तालाब में विसर्जन किया जाता था। वर्ष १९६० के बाद विश्वामित्री नदी का पानी कम होने लगा और शहरवासी सुरसागर तालाब में विसर्जन करने लगे।
ग्रंथों के अनुसार ही बनती थी गणपति की प्रतिमा पिछले ६५ वर्षों से गणपति की प्रतिमा बनाने की परम्परा को बनाए रखने वाले संकेतभाई का कहना है कि पहले ग्रंथों में जिस तरह गणपति का वर्णन है, उसी प्रकार की प्रतिमाएं उनके दादा बनाते थे, लेकिन अब लोगों की मांग के अनुसार गणपित की प्रतिमा ने मॉडर्न रूप धारण कर लिया है। जैसे की अलग-अलग थीम, घोड़ा, चांद, रथ पर बैठे गणपति व बाल गणेश आदि।
खेत की लाल मिट्टी को गलाकर बनाते थे प्रतिमा दांडिया बाजार में ७० वर्षों से गणपति की प्रतिमा बनाने वाली उमा बेडेकर का कहना है कि आज भावनगर की चिकनी मिट्टी तैयार मिलती है, लेकिन पहले उनकी सास खेत की लाल एवं काली मिट्टी को तीन-चार दिन पानी में गलाने के बाद प्रतिमा तैयार करते थे।