इस अवसर पर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. के. सी. शर्मा ने कहा कि बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण, सिमटते जल और खाद्यान स्त्रोत के चलते गौरेया का जीवन खतरे में है। प्रकृति की सुरक्षा में गौरेया का अहम योगदान रहा है। यह कीट नियंत्रण, पारिस्थितिकी संतुलन, पौधों में निशेचन करती हैं। यह चील, बाज, कौए, शिकरा और अन्य शिकारी पक्षियों का भोजन भी हैं। अंधाधुंध शहरीकरण के चलते चिडिय़ा धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर पहुंच रही है। शहरों में इसका मुख्य आवास मकान होते थे। लेकिन अब मकानों की डिजाइन की इस तरह के बन रहे हैं, जिससे इनका वहां घुसना और घौंसले बनाना संभव नहीं रहा है।
सेमिनार के आयोजक पर्यावरण विभागाध्यक्ष प्रो. प्रवीण माथुर ने कहा कि शहर के व्यस्ततम जीवन चक्र, पेड़-पौधों की घटती संख्या ने चिडिय़ा को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है। खेतों में छिड़के जाने वाले घातक कीटनाशक से इनको पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा। शहरों में बसेरो, खाद्य और पानी की समस्या के चलते अब यह गांवों में पलायन कर रही हैं। हम समय रहते नहीं चेते तो गौरेया खतरे के कगार पर पहुंच जाएगी।
कार्यक्रम में बॉटनी विभागाध्यक्ष प्रो. अरविंद पारीक ने कहा कि शहरीकरण ने चिडिय़ा और अन्य पशु-पक्षियों के प्राकृतिक आवास को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। पर्यावरण और जैव विविधता को बचाना है, तो मानवीय हलचल और शोर-शराबे को बंद करना जरूरी होगा। वक्त के साथ हमें शहरीकरण की कोई सीमा भी निर्धारित करनी चाहिए।
जूलॉजी विभागाध्यक्ष प्रो. सुभाष चंद्र ने कहा कि चिडिय़ा कभी घरों में चहचहाती दिखती थी। हमें घरों और उनके आसपास गौरेया के लिए प्राकृतिक आवास, भोजन-पानी का प्रबंधन और पेड़-पौधे लगाने चाहिए। यह उपाय नहीं किए गए तो चिडिय़ा के कलरव सुनने से हम महरूम हो जाएंगे। सेमिनार में छात्र दिवाकर यादव और छात्रा आकांशा वर्मा ने भी इसके संरक्षण, शहर में बढ़ते प्रदूषण और अन्य मुद्दों पर विचार व्यक्त किए। संचालन चंचल ने किया। धन्यवाद डॉ. संगीता पाटन ने दिया।
फुर्र की आवाज के साथ……
सैकड़ों तिनके इन्हें लाने, उठाने औग घौसले में लाने की जुगत…सिर्फ गौरेया थी जो रोशनदारों से बेआवाज उतरते सूरज की करणों के रथ का रास्ता रोक लेती थीदरवाजों के खुलने की रहत तकती चहचहा कर खोलने कामनुहार करती थी। (प्रो. आशीष भटनागर की स्वरचित कविता)