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अलवर से एक कविता रोज: कोई इस दर्द को निचोड़ दे, लेखक- श्याम सुन्दर आचार्य नीमराणा

अभी मेरे घाव हैं हरेजख्म़ सारे नहीं भरेदर्द रह रह झलक रहामन मेरा तड़फ रहाउस काली हकीकत कोकोई तो सिकोड़ देदर्द बिलबिला रहा है अंदरकोई इस दर्द को निचोड़ दे

अलवरOct 08, 2020 / 06:31 pm

Lubhavan

Alwar Se Ek Kavita Roj Koi Is Dard Ko Nichod De Shyam Sundar Acharya

अलवर से एक कविता रोज: कोई इस दर्द को निचोड़ दे, लेखक- श्याम सुन्दर आचार्य नीमराणा

अभी मेरे घाव हैं हरे
जख्म़ सारे नहीं भरे
दर्द रह रह झलक रहा
मन मेरा तड़फ रहा
उस काली हकीकत को
कोई तो सिकोड़ दे
दर्द बिलबिला रहा है अंदर
कोई इस दर्द को निचोड़ दे

दर्द ये एक दो दिन का नहीं
मुझे सहना ये ज़िंदगी भर है
मेरा कसूर कुछ भी तो नहीं
लड़की हूं, कसूर इतना भर है
समाज बदला, संस्कृति बदली
पर बदली नहीं नज़र
नियम बदले, कानून भी बदला
पर कुछ होता नहीं असर
वो घर में नर है,बाहर असुर है
भाई, चाचा मामा या वो ससुर है
नज़रें इनकी कहीं
मेरी चमड़ी ना उधेड़ दे
दर्द बिलबिला रहा है अंदर
कोई इस दर्द को निचोड़ दे
पहले मुश्किल था घर से निकलना
अब तो डर लगता है घर में ठहरना
बाहर का समाज मुझे जंगल लगता है
घर का आंगन भी अब श्मशान लगता है
घर और बाहर मैं ही तो निशाने पर हूँ
लालची नजरें के हर वक्त पैमाने पर हूँ
रंज है गर तो बस इस बात का
कन्या पूजन का ढिंढोरा किस बात का
फब्तियों से दो चार होना पड़ता है जलील इस तरह हर बार होना पड़ता है
रुह मेरा इस बदन से छुटकारा चाहती है
जालिम यातनाओं पर मरहम चाहती है
गर कोई मौला ए चश्म है
जो टूटे बदन से, रूह को जोड़ दे
दर्द बिलबिला रहा है अंदर
कोई इस दर्द को निचोड़ दे
केवल पूजन बुत हूँ , ये अभिशाप है
बेटी का तो जन्म लेना ही पाप है
बेटियाँ पाली जाती है, पोषी जाती है
भेड़ियों सम्मुख परोसी जाती हैं
वो नोचता है उसकी अस्मत और वसन
रक्षाबंधन पर रक्षा करने का जिसने दिया वचन
जब रक्षक ही भक्षक बना हो कौन बचावनहार
सरे बाज़ार हो गई मेरी इज्जत तार तार
अब भी संभलो, मुझे बचा लो
इंसानियत में मुझे छुपा लो
देवी स्वरूप हूँ , मां का ही रूप हूँ
चाँद की शीतलता सर्दी की धूप हूँ
हिफाजत हो काली बरसात से
कोई मां के आँचल में सिकोड़ दे
दर्द बिलबिला रहा है अंदर
कोई इस दर्द को निचोड़ दे
श्याम सुन्दर आचार्य ,सांसेड़ी (नीमराना)

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