विभिन्न अदालतों में एसिड अटैक के 850 से ज्यादा मामले लंबित हैं। देश में एसिड अटैक के सालाना 250 से 300 तक मामले दर्ज होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने देश की राजधानी दिल्ली में एसिड अटैक का एक मामला 16 साल से लंबित रहने पर कड़ा रुख अपनाते हुए इसे व्यवस्था के लिए शर्म की बात करार दिया। सर्वोच्च अदालत की नाराजगी जायज है क्योंकि एसिड अटैक के पीडि़तों के प्रति समाज और व्यवस्था से हम जो न्यूनतम अपेक्षा रखते हैं यह उसकी पोल खोलने वाला है। यह केवल एक मामले की त्रासदी नहीं, बल्कि उस लंबी चुप्पी की प्रतिध्वनि है, जो हमारे न्याय तंत्र में पीडि़तों की पीड़ा पर अक्सर हावी रहती है। अदालत की कड़ी टिप्पणी न सिर्फ न्यायिक तंत्र, बल्कि पूरे समाज के लिए आईना है। यह बताती है कि हम पीडि़त से अपेक्षा करते हैं कि वह अपनी टूटी हुई दुनिया को जोड़ ले, लेकिन उसे न्याय दिलाने को उतनी प्राथमिकता से नहीं लेते। सोलह साल की देरी केवल एक केस की देरी नहीं, यह उस इच्छा-शक्ति की कमी है, जिसे ऐसे अपराधों के खिलाफ समाज और संस्थाओं को दिखाना चाहिए। यह मामला देश की एक बड़ी समस्या को सामने रखता है। न्यायिक प्रक्रिया में देरी हमारे देश की पुरानी और प्रक्रियागत समस्या है। विभिन्न अदालतों में एसिड अटैक के 850 से ज्यादा मामले लंबित हैं। देश में एसिड अटैक के सालाना 250 से 300 तक मामले दर्ज होते हैं। मुकदमे वर्षों तक चलते हैं, गवाह उपलब्ध नहीं रहते, केस डायरी और प्रमाणों की स्थिति बिगड़ जाती है, पुलिस जांच अक्सर अधूरी या त्रुटिपूर्ण होती है। इन सबके कारण कोर्ट में लंबित मुकदमों की फाइलें ऊंची होती जाती हैं। एसिड अटैक जैसे अपराधों में यह देरी और भी परेशान करने वाली है। जहां अपराधी आजाद घूम रहे होते हैं, वहीं पीडि़ता रोज अपने चेहरे, शरीर और मन पर उकेरे उस दर्द को ढोती रहती है जिसे उसने नहीं चुना था। शीर्ष कोर्ट ने देशभर में एसिड अटैक के लंबित मुकदमों का डेटा तलब करते हुए सरकार को कानून में संशोधन कर एसिड अटैक पीडितों को विकलांगता की श्रेणी में शामिल करने का सुझाव दिया है। उम्मीद है कानूनी दृष्टि से आवश्यक व नैतिक रूप से अनिवार्य समझे जाने वाले इस कदम को लेकर जल्द ही कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश सामने आए। एसिड अटैक का दर्द शरीर के बाहरी अंगों तक नहीं, बल्कि व्यक्ति की पहचान का संकट पैदा करता है। बरसों इलाज व सर्जरी के अंतहीन सिलसिले के साथ मानसिक आघात इससे भी गहरा। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में एसिड की बिक्री पर कड़े नियम बनाते हुए राज्य सरकारों को एसिड खरीद-फरोख्त में लाइसेंसिंग सिस्टम, ट्रैकिंग, निगरानी तक के आदेश दिए थे। कटु सत्य यह है कि धरातल पर अपेक्षित बदलाव नहीं हुए। अब वक्त है कि सरकार, अदालतें और समाज- तीनों मिलकर एसिड अटैक मामलों को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। मुकदमा वर्षों चलता रहे तो यह पीडि़त के लिए दूसरी सजा जैसी ही है। न्याय की उम्मीद सूखने लगे तो संघर्ष किस आधार पर टिका रह सकता है।