पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध तो खराब हैं ही, अब मौका देखकर पाकिस्तान ने बांग्लादेश को लुभाना शुरू कर दिया है। शेख हसीना के पलायन के बाद से ही पाकिस्तानी नेताओं और सैन्य अधिकारियों के ढाका दौरे शुरू हो गए थे। भारत को भौगोलिक रूप से घेरने की इस पाकिस्तानी-चीनी साजिश में बांग्लादेश भी शामिल हो गया है।
जितेन्द्र कुमार त्रिपाठी, भारत के पूर्व राजदूत
पिछले एक वर्ष से बांग्लादेश के आतंरिक हालात में कोई भी सुधार नहीं दिखाई पड़ा है। अल्पसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं अवश्य कम हुई हैं, किंतु बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद यूनुस, उनकी कैबिनेट के अन्य सलाहकार, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और कट्टरपंथियों द्वारा समय-समय पर भारत के विरोध में विष-वमन ने न सिर्फ पंद्रह वर्षों से निरंतर विकासमान द्विपक्षीय संबंधों को भारी हानि पहुंचाई है, बल्कि इनके भविष्य पर भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध तो खराब हैं ही, अब मौका देखकर पाकिस्तान ने बांग्लादेश को लुभाना शुरू कर दिया है। शेख हसीना के पलायन के बाद से ही पाकिस्तानी नेताओं और सैन्य अधिकारियों के ढाका दौरे शुरू हो गए थे। भारत को भौगोलिक रूप से घेरने की इस पाकिस्तानी-चीनी साजिश में बांग्लादेश भी शामिल हो गया है। विगत जून में तीनो देशों- पाकिस्तान, चीन व बांग्लादेश के उच्चाधिकारियों की बैठक चीन के कुमिंग में हुई, जिसमें त्रिपक्षीय व्यापार, निवेश स्वास्थ्य, ढांचागत संरचना और ऋण अदायगी पर सहमति बनी। हाल में पाक के विदेश मंत्री इशाक डार ने यह कहा है कि तीनों देश मिलकर एक संगठन बनाएंगे, जिसका समर्थन बांग्लादेश के वैदेशिक मामलों के सलाहकार तौहीद हुसैन ने भी किया है। संभवत: यह निर्णय भी लिया गया है कि इस तिकड़ी में क्षेत्र के अन्य देशों (भारत को छोडक़र) को आमंत्रित किया जाएगा। भारत के लिए इस घटनाक्रम से दो संदेश मिलते हैं- पहला, हमें अपनी पूर्वी सीमाओं पर भी अधिक सैन्य तैयारी की आवश्यकता है व दूसरा यह कि यदि बांग्लादेशी हिंदु अल्पसंख्यकों पर फिर से अत्याचार शुरू हुए तो एक बड़ी आबादी के पलायन कर भारत में घुसने की आशंका बढ़ जाएगी। इसी की आड़ लेकर आतंकवादी घुस सकते हैं।
भारत-बांग्लादेश के संबंध 2024 से पहले के पंद्रह वर्षों (शेख हसीना के शासनकाल ) में मजबूत रहे हैं। इस दौरान अधिकतर विवादास्पद मुद्दे पारस्परिक समझदारी से सुलझा लिए गए हैं। केवल दो ऐसे मुद्दे हैं जो अब भी अनसुलझे रह गए हैं- पहला है तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे का। दूसरा मामला है अवैध बांग्ला घुसपैठियों का, जो राजनीति-प्रेरित रुख के कारण नहीं हल हो पाया है। देर-सबेर बांग्लादेश की सरकार को यह समझ में आ जाएगा कि उनके देश के आर्थिक हित भारत के साथ मैत्री-संबंध बनाए रखने में ही सधेंगे। दूसरे, भारत द्वारा बांग्लादेश में बड़ा निवेश और यहां चलाई जा रही विकास की परियोजनाएं बांग्लादेशियों की भलाई के लिए ही हैं, लेकिन यदि बांग्लादेश की नई सरकार भी भारत-विरोधी तत्वों की हुई तो भी हमें बांग्लादेश के प्रति अपनी सहायता की नीति में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए। सरकारें भले ही बदल जाएं, जनता धीरे- धीरे समझ जाती है कि भारत की नीति सामूहिक उत्थान, पड़ोसियों के विकास में सहायता की ही रही है। मालदीव इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहां भारत-विरोधी लहर पर चुनकर आए राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू पहले तो भारत के विरुद्ध काम करते रहे, पर उन्हें बाद में समझ में आ गया कि भारत जैसे निकटस्थ बड़े पड़ोसी से बनाकर रखने में ही भलाई है। अभी स्थिति जो भी हो, बांग्लादेश में फरवरी के चुनावों के बाद स्पष्ट हो जाएगा कि बांग्लादेश के रुख में बदलाव
कब आएगा।