काबुल पर कब्जे से एक रात पहले जेल के अंदर विद्रोह हुआ था। मुझे भी इस बारे में बताया गया था। मैंने गैर-तालिबान कैदियों से संपर्क करने की कोशिश की। अगले दिन सुबह 8 बजे उठा। मैंने रक्षा मंत्री, आंतरिक मंत्री और उनके डेप्युटी से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन संपर्क नहीं हो पाया। काबुल के पुलिस प्रमुख ने मुझे सूचित किया कि वह एक घंटे तक मोर्चा संभाल सकते हैं। हताशा के उस एक घंटे में मैं शहर में कहीं भी अफगान सैनिकों को खोजने में असमर्थ था। मैंने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को संदेश भेजा कि हमें कुछ करना है। मुझे किसी से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। काबुल में 15 अगस्त की सुबह 9 बजे तक घबराहट फैल चुकी थी।
अफगानिस्तान में सरकार क्यों नहीं बना पा रहा तालिबान, जानिए कौन-कौन सी अड़चनें हैं उसके सामने
यह क्षण अफगाान राजनेताओं की परीक्षा का था। वे विफल रहे। वे भाग गए। हमें ऐसे नेता नहीं चाहिए, जो नंगे पैर महल से भागने के बाद भूख-प्यास से रोती बिलखती जनता को लैपटॉप स्क्रीन के पीछे बैठकर संदेश दें। क्या गरीब बेसहारा जनता से नेताओं जैसा रणनीतिक होने की उम्मीद की जा सकती है? क्या फेसबुक और ट्विटर पर संदेश लिखकर हम निहत्थी जनता से देश बचाने की उम्मीद कर सकते हैं? क्या रेडियो इंटरव्यू सुनकर ही जनता दुश्मनों के खिलाफ विद्रोह कर देगी? होटलों में बैठे अफगान नेता यही सोच रहे हैं। यह कायरता है। जैसे ही तालिबान ने काबुल पर अपनी पकड़ मजबूत की, मैंने अहमद मसूद (पंजशीर के नेता) को संदेश भेजा। मैंने घर जाकर अपनी पत्नी और बेटियों की तस्वीरें नष्ट कर दीं। मैंने अपना कंप्यूटर और कुछ सामान इक_ा किया। मैंने अपने बॉडीगार्ड रहीम से कहा, कुरान पर हाथ रखकर वादा करो कि मैं तुम्हें जो आदेश दूंगा, उसे पूरा करोगे। हम पंजशीर जा रहे हैं। वहां अपने तरीके से लडेंग़े। इस लड़ाई में यदि मैं घायल हो जाऊं, तो मेरे सिर में दो गोलियां मार देना। मैं तालिबान के सामने आत्म समर्पण नहीं करना चाहता।
भागता तो यह कायरता होती…
मैं भावनात्मक संदेशों से घिरा था, जो मुझे भागने के लिए उकसा रहे थे। लेकिन यह कायरता मेरे लिए शर्मनाक होती। मेरे बदन की कोई नस इस कायरता को स्वीकार करने को तैयार न थी। मैंने अहमद मसूद को संदेश भेज पूछा, कहां हो। वह बोला, वह काबुल में भविष्य की योजना बना रहा है। मैंने उसे सेना में शामिल होने की पेशकश की।
पंजशीर में मिला पूरा समर्थन –
बमुश्किल पंजशीर पहुंचे, तो मस्जिद में बुजुर्गों के एकत्र होने का संदेश मिला। हम वहां पहुंचे। करीब एक घंटे उनसे बातचीत की। उनका पूरा समर्थन मिला। पंजशीर पर्यटन क्षेत्र था। वहां लोगों के पास न हथियार थे और न ही गोला-बारूद। हम उसी रात सूबे की सुरक्षा की योजना बनाने में जुट गए। मुझे अहमद मसूद के हेलिकॉप्टर से पंजशीर आने की जानकारी मिली। मेरे लिए तालिबान का प्रतिरोध करना अब भी आसान नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि मैं मुश्किल में हूं। मैं स्टील से नहीं बना हूं। मेरे पास भावनाएं है। मैं जानता हूं तालिबान मेरा सिर चाहता है।
दो हमलों में बाल-बाल बचे –
हम बख्तरबंद गाडिय़ों व दो बंदूकों वाले पिकअप ट्रकों के साथ पंजशीर रवाना हुए। रास्ते में सड़कें जाम थीं। उत्तरी दर्रे को पार करते समय दो बार हमारे काफिले पर हमला हुआ, लेकिन हम बच गए। रास्ते में देखा, पूरा उत्तरी दर्रा अराजक क्षेत्र बन चुका है, जहां चारों तरफ लुटेरे, चोर व तालिबानी नजर आ रहे थे।