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आजमगढ़

अखिलेश यादव के सामने यह है सबसे बड़ी चुनौती, नये प्लान से आगे की राह हुई और मुश्किल

पहले से कई खेमों में बंटी है पार्टी, सालों से जारी है शह मात का खेल

आजमगढ़Sep 09, 2019 / 04:42 pm

Akhilesh Tripathi

akhilesh yadav

अखिलेश यादव

आजमगढ़. बसपा से गठबंधन के बाद भी लोकसभा चुनाव में मिली बड़ी हार के बाद सपा मुखिया पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने संगठन की सभी इकाइयों को भंग कर बड़े बदलाव का संकेत दिया है। लेकिन उनका यह दांव उनके अपने संसदीय क्षेत्र में ही सपा पर भारी पड़ सकता है। कारण कि यहां पार्टी कई खेमों में बंटी है और शह मात का खेल लंबे अरसे से जारी है। यही वजह थी कि मुलायम सिंह यादव यहां 2014 का चुनाव हारते हारते बचे थे और आजमगढ़ से यह कह कर गए थे कि यहां के नेताओं के भरोसे रहता तो जीवन में पहली हार का मुंह देखना पड़ जाता। इसके बाद मुलायम सिंह कभी सांसद की हैसियत से आजमगढ़ नहीं लौटे।

बता दें कि समाजवादी पार्टी पिछले एक डेढ़ दशक से तीन खेमों में बंटी हुई है। एक दौर था जब रमाकांत यादव इस पार्टी के सबसे कद्दावर स्थानीय नेता और मुलायम सिंह के सबसे करीबी होते थे। आपसी गुटबंदी और अमर सिंह से पंगा उन्हें भारी पड़ा था और वर्ष 2004 में रमाकांत यादव को पार्टी छोड़ बसपा में जाना पड़ा था। अब पार्टी बलराम खेमा, दुर्गा प्रसाद खेमा, नंदकिशोर खेमा और हवलदार खेमें में बंटी हुई है। लोकसभा चुनाव के पहले से ही रमाकांत की पार्टी के पार्टी में दोबारा इंट्री की चर्चाओं से बेचैन है।

बलराम जिलाध्यक्ष हवलदार यादव के राजनीतिक गुरू है और आज के समय में सबसे बड़े राजनीतिक विरोधी भी। यही वजह है कि कई मौकों पर बलराम विरोधी गुट हवलदार के साथ खड़ा नजर आया है। जाहे अविश्वास प्रस्ताव के जरिये हवलदार की बहू से जिला पंचातय अध्यक्ष की कुर्सी छीनने की कोशिश मामला रहा हो या फिर कोई अन्य दुर्गा ने खुलकर हवलदार का साथ दिया है। अब जिला इकाई भंग हो चुकी है। चर्चा है कि हवलदार के अलावा किसी और को अध्यक्ष बनाया जा सकता है। ऐसे में सारे गुट अपने खास को अध्यक्ष बनाने के लिए लाबिंग करने में जुट गये है।
साफ है कि जिस गुट का अध्यक्ष बने, दूसरा गुट हमेशा उसका विरोध करेगे। जैसा कि पूर्व में बलराम यादव और दुर्गा प्रसाद यादव एक दूसरे को लोकसभा चुनाव हरा चुके हैं। चूंकि अब अखिलेश यहां सेे सांसद है तो सभी की निगाह इस जिले पर है। और 2022 में 2012 की सफलता दोहराना अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में अगर पार्टी की गुटबाजी समाप्त नहीं होती है तो अखिलेश का मंसूबा पूरा होना मुश्किल होगा। कारण कि 2017 में कांग्रेस से गठबंधन के बाद भी पार्टी 2012 का प्रदर्शन दोहराने में असफल रही थी।
BY- RANVIJAY SINGH

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