आजमगढ़. एक दौर था जब देश गुलाम था। गरीबी, भुखमरी आम बात थी उस दौर में भी इस जिले के कुम्हारों की देश ही नहीं बल्कि विदेशों में तूती बोलती थी। कुम्हारों ने अपनी मेहनत और कला के दम पर पॉटरी को विश्व प्रसिद्ध कराया। देश में दिपावली आते ही यहां के कुम्हारों के डिजाइन किए दीपक के लिए यूपी के बाहर तक से लोग आते थे लेकिन सरकारों की उपेक्षा और चाइनीज दीयों व झालरों ने आज इन्हें भूखमरी की कगार पर पहुंचा दिया है। अब न तो घरों में दीपावली पर दीपक जगमगाते हैं और ना ही मटकों में पानी पिया जाता है। इनकी जगह गांव से शहर तक चाइनीज झालरों की जगमगाहट से घर रोशन होते हैं। परिणाम इन गरीब कुम्हारों को भुगतना पड़ रहा है।
आलमगरी के समय से चल रहा कारोबार आलमगरी ने अपने शासन काल में निजामाबाद व आसपास के क्षेत्रों में बाहर से लाकर कुम्हारों को बसाया। इन कुम्हारों ने पॉटरी को नया जीवन दिया तो यहां के स्थानीय कुम्हारों को भी संबल प्रदान हुआ। उसी समय से यहां मिट्टी के बर्तन का करोबार कुटीर उद्योग के रूप में विकसित हुआ। यहां के कुम्हारों द्वारा डिजाइन किए गए परई, मटका, सुराही, कुंडा आदि की मांग सिर्फ जिले में नहीं बल्कि आसपास के प्रदेशों में भी होती थी। कुल्हड़ के कारोबार से इन्हें बारहों महीने रोटी के लिए भटकना नहीं पड़ता था।
पहले और आज में फर्क वर्ष 1990 के बाद कभी किसी सरकार ने इस कारोबार की तरफ ध्यान नहीं दिया। मिट्टी की कमी, निर्यात की सुविधा का आभाव इस कारोबार को गर्त में पहुंचाता गया। वर्ष 2000 के बाद जिले में चायनीज सामानों थर्माकोल, प्लास्टिक बर्तन, गिलास आदि की मांग तेजी से बढ़ी जिसके कारण चाय तक की दुकान से मिट्टी का कुल्हड़ गायब हो गया। वहीं त्योहारों पर मिट्टी के बर्तन के बजाय चायनीज झालर, चाइनीज दियों ने कब्जा कर लिया। इससे यह कारोबार पूरी तरह चैपट हो गया। आज कुम्हार रोजी रोटी के मोहताज हैं।
दियों की जगह चाइनीज लाइट और मोमबत्तियों दीपावली पर पहले मिट्टी के दियों का उपयोग होता था लेकिन समय के साथ लोग आधुनिकता में बहकर परम्परा से दूर होते गए और चाइनीज झालर व मोमबत्तियों का उपयोग शुरू हो गया। इसका सीधा असर मिटटी के बर्तन के कारोबार पर पड़ा। वैसे कुम्हार आज भी दीपावली पर दिये बनाते हैं लेकिन बिक्री पहले की अपेक्षा 90 प्रतिशत तक कम हो गयी है।
नहीं निकल पा रही है लागत लगातार बढ़ आबादी और तालाब पोखरों पर अवैध कब्जे के कारण आज कुम्हारों के सामने सबसे बड़ी समस्या मिट्टी की है। कुम्हार हौसिला का कहना है कि जो मिट्टी उन्हें पहले फ्री में मिल जाती थी अब खरीदनी पड़ रही है। वहीं बतर्न को पकाने के लिए लगने वाली लकड़ी और उपला भी काफी मंहगा हो गया है। इससे लागत काफी बढ़ गयी है। जबकि दुकानदार हो या गांव के लोग आज भी 30 पैसे में कुल्हड़ और इतने में ही दिये की मांग करते हैं। जिससे अब यह घाटे का कारोबार हो गया है।
डिजाइनर बर्तन की नहीं मिलती कीमत कुम्हार फेंकू बताते हैं कि दिये से लेकर सुराही और मटके तक पर डिजाइन की जाती है। डिजाइन बनाने में काफी समय लगता है लागत भी बढ़ जाती है। ग्राहक मिट्टी के बर्तन को मिट्टी के भाव लेना चाहत है जिससे हमें नुकसान उठाना पड़ता है।
बस दीपावली में करते है पुस्तैनी काम योगेंद्र का कहना है कि हमारी कई पुश्ते इस कारोबार से जुड़ी रही है।आज भी हम मिट्टी के बर्तन बनाते है लेकिन अब इनकी डिमांड नहीं है। इसलिए ज्यादातर लोग रोटी रोटी के लिए महानगर जा रहे है। हम भी त्योहारी सीजन में बर्तन बनाते है फिर बाकि समय मेहनत मजदूरी कर परिवार चलाते हैं। बड़ी संख्या में लोग अब इर कारोबार को छोड़ चुके हैं कारण कि यह काम कर हम दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर सकते हैं।
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