scriptकारगिल विजय दिवसः इकलौते बेटे ने देश के लिए दी जान, पिता ने मुफलिसी में तोड़ा दम | Kargil Shahid Divas Special Story martyr Vijay in azamgarh | Patrika News
आजमगढ़

कारगिल विजय दिवसः इकलौते बेटे ने देश के लिए दी जान, पिता ने मुफलिसी में तोड़ा दम

तमाशबीन बना रहा प्रशासन कभी नहीं की कोई मदद, अंतिम समय में डा. अनूप ने की कोशिश लेकिन नहीं बची जिंदगी
 

आजमगढ़Jul 26, 2019 / 02:34 pm

sarveshwari Mishra

Kargil Vijay Divas

Kargil Vijay Divas

आजमगढ़. पूरा देश कारगिल विजय के जश्न में डूबा है, शहीदों को नमन किया जा रहा है लेकिन एक सवाल यहां हर जेहन में कौंध रहा है कि क्या हम और हमारी सरकार शहीदों और उनके आश्रितों के प्रति वास्तव में गंभीर है। हमारे दिल में उनके प्रति वह सम्मान है जिसके वह वास्तव में हकदार है? शायद नहीं अगर होता तो कारगिल युद्ध के दौरान 11 अगस्त 1999 को दुश्मनों की बमबारी शहीद हुए आजमगढ़ के लाल रमेश यादव को कारगिल शहीद का दर्जा जरूर मिला होता और अपने इकलौते बेटे को देश की रक्षा के लिए भेजने वाला पिता मुफलिसी में दम न तोड़ता। उसकी चिता की आग तो चंद घंटे पहले ठंडी हो गयी लेकिन अपने पीछे कई ज्वलंत सवाल छोड़ गयी जिसका जवाब किसी के पास नहीं है।
बता दें कि सगड़ी तहसील दिवस के नत्थूपुर गांव निवासी सीताराम की तीन पुत्री एक पुत्र था। सबसे बड़ी शशिकला फिर चंद्रकला और तीसरे नंबर पर पुत्र रमेश था। रमेश से छोटी बहन मनकला है। रमेश ने इंटर तक की शिक्षा क्षेत्र के ही गांधी इंटर कॉलेज मालटारी से पूरी की और वर्ष 1997 में सेना में भर्ती हो गए थे।
सेना की ट्रेनिंग के बाद रमेश घर लौटे तो उनके पिता ने दबाव बनाकर मीरा से उनकी शादी करा दी। शादी के बाद रमेश ड्यूटी पर चले गए। अब शादी को एक महीना ही पूरा हुआ था कि कारगिल युद्ध के दौरान 11 अगस्त 1999 को दुश्मनों द्वारा गाड़ी पर बम फेंके जाने से शहीद हो गए। उनका शव उनके घर पर 15 अगस्त 1999 को पहुंचा। इकलौते बेटे के शहीद होने के बाद परिवार की आर्थिक स्थित और बिगड़ गयी। माता अनाजी देवी और पिता सीताराम को फक्र था कि उनका बेटा देश के लिए शहीद हुआ। साथ ही उम्मीद भी थी कि उसे कारगिल शहीद का दर्जा सरकार देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रमेश को कारगिल शहीद का दर्जा नहीं मिला और मां अनाजी देवी बेटे के शोक में बीमार पड़ी तो विस्तर से नहीं उठ पाई। 2002 में उनका निधन हो गया। वहीं मीरा ने भी पति के निधन के बाद सास ससुर को छोड़ दिया। उसने दूसरी शादी कर ली। सीताराम भी बेटियों की शादी के बाद अकेले पड़ गए। बेटियां घर आकर उनकी सेवा करती लेकिन आर्थिक तंगी ने उन्हें रोगी बना दिया। धीरे-धीरे वह मरणासन्न स्थिति में पहुंच गए।
67 साल की उम्र में जब सीताराम की हालत ज्यादा बिगड़ी तो बेटियों ने उन्हें शहर के लाइफ लाइन अस्पताल में भर्ती कराया जहां डा. अनूप ने मानवता का परिचय देते हुए उनका निःशुल्क उपचार शुरू किया लेकिन शासन प्रशासन ने शहीद के पिता की मदद के लिए कभी हाथ नहीं बढ़ाया। गरीबी और बीमारी से जूझते हुए सीताराम बुधवार को दुनियां से कूच कर गए।

शहीद की बड़ी बहन चंद्रकला ने बताया कि सरकार से जो भी सहायता राशि मिली हुई थी, शहीद की पत्नी मीरा के नाम मिली थी। वह सब कुछ लेकर चली गईं। उनके पिता व परिजनों को कुछ ना मिलने से उनकी हालत शुरू से ही दयनीय थी जिसके कारण समय से उपचार तक नहीं करा सके और बिस्तर पकड़ लिया। अब वे हमें भी अनाथ कर चले गए। तीनों बहनों को इस बात का मलाल है कि सरकार ने कुछ भले न किया हो लेकिन उनके भाई को कारगिल शहीद का दर्जा देना चाहिए था। कारण कि वह उसी दौरान शहीद हुए थे।

Home / Azamgarh / कारगिल विजय दिवसः इकलौते बेटे ने देश के लिए दी जान, पिता ने मुफलिसी में तोड़ा दम

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो