बता दें यूपी में मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन को सत्ता की सीढ़ी माना जाता है। बिना इनके सपोर्ट के सपा, बसपा या कांग्रेस कभी सत्ता का सुख नहीं ले पाई हैं। तीन दशक पूर्व मुस्लिम मतदाताओं को कांग्रेस से मोहभंग होने का नतीजा रहा कि पार्टी हाशिए पर चली गयी। 1990 से आज तक यूपी का मुसलमान कभी सपा तो कभी बसपा का साथ देता रहा है। मुलायम सिंह की सरकार में अयोध्या में हुए गोली कांड के बाद मुसलमानों का रूझान सपा की तरह अधिक रहा लेकिन कुछ मौकों पर वे बसपा के साथ भी खड़े हुए। वर्ष 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने का बड़ा कारण मुस्लिम मतदाताओं की पार्टी के प्रति लामबंदी थी। इसके बाद 2012 में मुस्लिम खुलकर सपा के साथ खड़ा हुआ तो अखिलेश यादव पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रहे। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और मायावती को मुसलमानों से काफी आस है। खासतौर पर उस हालत में जब अति पिछड़ा और अति दलित इनका साथ छोड़ बीजेपी के साथ पूरी मजबूती से खड़ा है।
यूपी के पूर्वांचल में दो दर्जन से अधिक ऐसी सीटें है जिस पर मुस्लिम मतदाता हार जीत का फैसला करता है। सभी दलों को पता है कि बिना पूर्वांचल जीते वे यूपी के सत्ता की सीढ़ी नहीं चढ़ सकते हैं। बिहार में चुनाव में पहली बार देखने को मिला कि मुस्लिम भाजपा को हराने के बजाय अपनी यानि मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टी को तरजीह दिये। जिसका परिणाम रहा कि ओवैसी की पार्टी पांच सीट जीतने में सफल रही। बिहार से पूर्वांचल की सीमा सटी है जिसका असर अब यहां भी दिख रहा है। आजमगढ़ व आसपास के जिलों में ओवैसी की मजबूत पकड़ है। एकआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष शौकत अली भी इसी जिले के रहने वाले हैं। पार्टी पंचायत चुनाव में मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में प्रत्याशी उतारने का मन बना चुकी है। इसे विधानसभा की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है। कारण कि ओवैसी यूपी विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषण कर चुके हैं।
इसके अलावा बटला एनकाउंटर के बाद मुस्लिम युवाओं के हक की लड़ाई लड़ने का वादा कर अस्तित्व में आयी उलेमा कौंसिल भी पंचायत चुनाव में किस्मत आजमाने जा रही है। इस पार्टी ने तो 22 क्षेत्रों में प्रभारी भी नियुक्त कर दिया है। उलेमा कौंसिल 2017 का विधानसभा चुनाव बसपा के साथ गठबंधन कर लड़ चुकी है। यह अलग बात है कि गंठबध्ंान में उसने मायावती से कोई सीट नहीं ली थी। यहीं नहीं वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में अगर बीजेपी आजमगढ़ संसदीय सीट पर खाता खोल पाई थी तो उसके पीछे वजह सिर्फ उलेमा कौंसिल थी। उलेमा प्रत्याशी डा. जावेद को लोकसभा में 59 हजार वोट मिले थे जबकि बीजेपी मात्र 54 हजार वोटों से जीती थी। दोनों ही दल खुद को मुस्लिम हितैषी होने का दावा कर रहे हैं।
वहीं सपा और बसपा इन्हें अपना वोट बैंक मानती रही हैं। सपा, बसपा इनपर लगातार दावा कर ही है। रहा सवाल कांग्रेस का तो वह संगठन में तेजी से मुस्लिम युवाओं को जगह दे रही है। पार्टी की नजर छात्र राजनीति से जुड़ मुस्लिम युवाओं पर हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम मतदाता किसके साथ खड़ा होगा। क्या वह बिहार की तरह अलग राह पकड़ेगा या फिर उसका सपोर्ट उस पार्टी को होगा जो उसे बीजेपी को चुनौती देता नजर आयेगा।
BY Ran vijay singh