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आजमगढ़

world hindi diwas: जिसने हिंदी को दिया बड़ी पहचान, यहां मिट रहा उसी का नामोनिशान

-महाकवि हरिऔध की विरासत को नहीं संभाल पाए आजमगढ़ के लोग
-खंडहर में तब्दील हो चुका है उनका पैतृक आवास, कला भवन का निर्माण भी है अधूरा
हिंदी दिवस पर विशेष–

आजमगढ़Sep 14, 2021 / 02:22 pm

Ranvijay Singh

खंडहर में तब्दील हरिऔध का घर

खंडहर में तब्दील हरिऔध का घर

पत्रिका न्यूज नेटवर्क
आजमगढ़. world hindi diwas: खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य प्रिय प्रवास अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh किसी पहचान के मोहताज नहीं है। पूरी दुनिया उन्हें कवि सम्राट के रूप में जानती है। हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें एक बार सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया लेकिन इस महान हस्ती की धरोहर उनके पैृतक जिले के लोग ही नहीं संजो पाए। हरिऔध की जन्मस्थली खंडहर में तब्दील हो चुकी है तो उनके द्वारा शुरू किया गया स्कूल बंद हो चुका है। हरिऔध के नाम पर एक कला भवन तो बना था लेकिन बिल्डिंग जर्जर होने के बाद जब 2013 में उसका दोबारा निर्माण शुरू हुआ तो आज तक पूरा नहीं हो पाया।

बता दें कि हरिऔध जी का जन्म जिला मुख्यालय से 15 किमी दूर निजामाबाद कस्बे में पंडित भोलानाथ उपाध्याय के घर हुआ था। उन्होंने सिख धर्म अपना कर अपना नाम भोला सिंह रख लिया था, वैसे उनके पूर्वज सनाढ्य ब्राह्मण थे। इनके पूर्वजों का मुगल दरबार में बड़ा सम्मान था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा निजामाबाद एवं आजमगढ़ में हुई। पांच वर्ष की अवस्था में इनके चाचा ने इन्हें फारसी पढ़ाना शुरू कर दिया था। हरिऔध जी निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास करने के पश्चात काशी के क्वींस कालेज में अंग्रेजी पढ़ने के लिए गए, किंतु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कालेज छोड़ना पड़ा।

उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी आदि का अध्ययन किया और 1884 में निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापक हो गए। इसी पद पर कार्य करते हुए उन्होंने नार्मल-परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इनका विवाह आनंद कुमारी के साथ हुआ। वर्ष 1898 में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। वे कानूनगो हो गए। इस पद से 1932 में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप से कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। वर्ष 1941 में वे निजामाबाद लौट आए। उन्होंने आजमगढ़ में एक स्कूल भी खोलवाया। वहां भी वे अध्यापन के लिए जाने थे। इस दौरान साहित्य की सेवा भी करते रहे। कहते हैं कि प्रिय प्रवास का काफी हिस्सा उन्होंने स्कूल और अठवरिया मैदान स्थित मंदिर में बैठकर लिखा। वर्ष 1947 में उनका निधन हो गया।

आज भी निजामाबाद कस्बा में पहुंचते ही कई लोग ऐसे मिल जाते है जो यह गर्व करने से नहीं चूकते कि यह कवि सम्राट हरिऔध की धरती है। इस कस्बे में यह हर आदमी जानता है कि हरिऔध की खंडहर हो चुकी जन्मस्थली कहां है लेकिन उस खंडहर को संवारने और कवि सम्राट की स्मृतियों को सहेजने के लिए उनके कस्बे वालों ने कोई प्रयास क्यों नहीं किया। कवि हरिऔध के टूटे-फूटे घर के ठीक बगल में जगत प्रसिद्ध चरणपादुका गुरुद्धारा है। जहां गुरु तेग बहादुर और गुरुगोविंद, गुरूनानक देव आकर तपस्या कर चुके हैं।

वर्षाे के प्रयास के बाद उनके पुश्तैनी भवन तक जाने के लिए दो साल पहले सड़क तो बन गयी लेकिन उनकी विरासत को संभालने की कोशिश किसी ने नहीं की। गुरुद्धारे से कवि का रिश्ता भी रहा है। वे यहां भी रहकर अपना लेखन कार्य किया करते थे। हिंदी कविता में खड़ी बोली को सशक्त स्थान दिलाने वालों में प्रमुख स्थान रखने वाले कवि हरिऔध के इस कस्बे में अभी तक एक भी महाविद्यालय स्थापित नहीं हो सका है। उनके एक मात्र वारिस उनके प्रपौत्र विनोद चंद शर्मा लखनऊ में रहते हैं और कभी-कभार यहां आते हैं। यहां के जनप्रतिनिधियों ने कस्बे के एक छोर पर कवि की छोटी सी प्रतिमा लगवाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लिया। निजामाबाद में कवि के एक प्रेमी ने अपने बल पर उनके नाम से दो स्कूल स्थापित किया है। इस स्कूल में कभी कवि की प्रतिमा लगाने और वाचनालय स्थापित करने की बात चली थी। शासन की ओर से हुई इस पहल पर फाइलें भी दौड़ी लेकिन वे फाइलें फिर कहां गई कुछ पता नहीं चला।

यहां के लोग यह भी नहीं जानते कि जिन्हें लोग कवि सम्राट कहते हैं उन्होंने अधखिला फूल नामक उपन्यास भी लिखकर हिंदी साहित्य को अनोखे ढंग से समृद्ध किया है। कभी बोलचाल नामक ग्रंथ लिखकर हिंदी मुहावरों के प्रयोग की राह दिखाने वाले हरिऔध की स्मृतियां आज खुद कई-कई मुहावरों का चुभते हुए पर्याय बनकर रह गई है। यह बात तो चुभती है कि निजामाबाद के लोगों की स्मृति में भले ही गर्व के साथ पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध मिल जाएं लेकिन निजामाबाद की धरती पर उनकी स्मृति कहीं नजर नहीं आती है। हरिऔध जी के नाम पर बने कला भवन का निर्माण अधूरा पड़ा है। इस तरफ न तो शासन का ध्यान है और ना ही प्रशासन का।

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