बता दें कि बांसफोर समाज जिले के सबसे पिछड़े लोगों में शामिल है। इस समाज के लोगों के पास अपने घर तो दूर झोपड़ी तक नहीं है। इनके हुनर से भी कोई अपरचित नहीं है। हुनरमंद बांसफोर बांस को फाड़ कर अपनी करामाती उंगलियों से डाल, डलिया, बिनौठी, मौर, दउरी, खांची, आदि तैयार करते हैं। लोगों के घर में होने वाले शादी विवाह में इसका उपयोग खूब होता है। इनके बनाए डाल में सजाकर दुल्हन के लिए डाल के कपड़े भेजे जाते हैं। इसे शुभ भी माना जाता है। सामान्य दिनों में फांकाकशी के शिकार रहने वाले इस समाज के लोग बस लगन में ही सुखमय जीवन जी पाते हैं।
शहर के कालीनगंज में डेढ़ दर्जन से अधिक बांसफोर समाज के आधा दर्जन परिवार रहते हैं। बंधे पर नदी के किनारे जिंदगी में गुजारना इनकी नियत बन चुकी है। सरकार ने कुछ लोगों को कांशीराम आवास में घर दिया है लेकिन वह सुदूर गांव में जहां इन्हें रोजगार नहीं मिलता। बड़ी संख्या में लोग आज भी आवास से वंचित हैं। यही नहीं तमाम लोगों को अब तक उज्जवला योजना के तहत गैस भी नहीं मिली है।
बांसफोर साधना, अमरनाथ, अनीता आदि का कहना है कि सभी के लिए सरकार योजनाएं चलाती है लेकिन आज तक हमारे लिए प्रशिक्षण आदि से संबंधित कोई योजना नहीं चलाई गयी। यहां तक कि हमें आवास व गैस भी नहीं मिली। सरकार को बांस उद्योग को बढ़ावा देने पर काम करना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा कि पाटरी की तरह बांस के बने सामानों का प्रमोशन होना चाहिए। हमे सरकार बाजार उपलब्ध कराए तो हमारे अच्छे दिन आ सकते है। आज स्थित यह है कि अगर लगन न आये तो हमारे बच्चे साल भर भूखों मरें।
प्रबंधक जिला उद्योग केंद्र प्रवीण मौर्य का कहना है। विश्वकर्मा श्रम सम्मान योजना के तहत बांसफोर समाज के लोगों को प्रशिक्षित कर टूल किट उपलब्ध कराने की योजना थी लेकिन पिछले दो साल में एक भी आवेदन नहीं आया। इसलिए शासन को पत्र लिखकर इसे दूसरे ट्रेड में बदलने की अपील की गयी है। अगर 25 लोग आवेदन करें तो वे प्रशिक्षण करा सकते हैं।
बेसब्री से करते है लगन का इंतजार
बांसफोर समाज के लोग हमेशा लगन आने का इंतजार करते हैं। कारण कि लगन आने पर डाल 151 रुपए से 300 रुपए तक, छबिया 80 से 100 रुपए जोड़ा, बेनौठी 150 रुपए तक बिक जाती है। इस बार महंगाई के चलते बांस की आपूर्ति भी मुश्किल से हो पा रही है। ठेकेदार से बांस खरीदना पड़ रहा है। लेकिन शुभ कार्याे में प्रयोग होने वाले सामानों को खरीदना लोगों की मजबूरी है। ऐसे में लगन के दौरान लोग आएंगे यह सोचकर वे सामान तैयार कर रहे हैं।