जेएनसीएएसआर की अनुसंधान टीम का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर टी.गोविंद राजू ने ‘पत्रिकाÓ को बताया कि डायबिटीज उपचार के पारंपरिक और अंतिम उपाय के तहत शारीरिक ग्लूकोज होमियोस्टेसिस को बनाए रखने के लिए बार-बार त्वचा के नीचे इंसुलिन इंजेक्शन लेना पड़ता है। इससे रोगी को बार-बार दर्द सहना पड़ता है। उत्तकों (टिश्यू) को नुकसान भी पहुंचता है और संक्रमण का खतरा भी रहता है। कभी-कभार इंसुलिन का प्रवाह उचित तरीके से नहीं होने से शुगर लेवल में काफी गिरावट तो कभी उच्च स्तर की शिकायत भी आती है। नियंत्रित और निरंतर इंसुलिन प्रवाह से इस समस्या को दूर किया जा सकता है। इसके लिए लगभग तीन वर्षों के गहन शोध के बाद उन्होंने कोकून (रेशम के कीड़े) से अलग किए गए प्रोटीन से इस फाइब्रोइन हाइड्रोजेल का विकास किया है। प्रयोग के तहत इस हाइड्रोजेल में इंसुलिन का एनकैप्सुलेशन कर दिया गया। यानी, इंसुलिन इंजेक्शन को सिल्क फाइब्रोइन हाइड्रोजेल युक्त इंजेक्शन बना दिया। इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है।
उन्होंने बताया कि सिल्क फाइब्रोइन हाइड्रोजेल युक्त इंजेक्शन लेने पर त्वचा के नीचे एक सक्रिय डिपो बन जाता है। इस डिपो से इंसुलिन धीरे-धीरे बाहर निकलता है और उसका प्रवाह नियंत्रित व समान रूप से होता है। यह इंजेक्शन लेने के बाद 4 दिनों की लंबी अवधि तक शारीरिक ग्लूकोज होमियोस्टेसिस बहाल रहता है। इससे खून में इंसुलिन का कंसंट्रेशन बनने का कोई खतरा नहीं होता अथवा शुगर लेवर में अचानक गिरावट का कोई जोखिम नहीं होता है। इंसुलिन इंजेक्शन पर निर्भर रोगियों को इससे चार दिनों तक इंजेक्शन लेने की आवश्यकता नहीं रह जाती। थोड़े और शोध के बाद इंजेक्शन लेेने की अवधि 4 दिन से 7 दिन तक बढ़ाई जा सकती है।
अब इसी तकनीक का उपयोग कर भविष्य में मुंह से दिए जाने वाले इंसुलिन यानी, इंसुलिन टैबेलेट का भी विकास किया जा सकता है। विश्व को ऐसे प्रभावकारी इंसुनिल टैबलेट का अभी भी इंतजार है। प्रोफेसर गोविंद राजू ने काह कि इंसुलिन काफी संवेदनशील है लेकिन नव विकसित हाइड्रोजेल इंसुलिन की संरचना और उसकी गतिविधियों को संरक्षित (प्रीजर्व) करता है। यह खाने योग्य पदार्थ भी है। इसलिए उम्मीद है कि आगे चलकर इससे इंसुलिन टैबलेट का विकास हो सकता है। इससे देश में 7 करोड़ से अधिक मधुमेह रोगियों को तो लाभ होगा ही दुनिया के लिए भी यह अनूठी तकनीक होगी। वैज्ञानिकों ने मधुमेह वाले चूहों पर यह प्रयोग किया जो काफी कारगर साबित हुआ है। प्रोफेसर गोविंद राजू ने कहा कि जेएनसीएएसआर टीम को उम्मीद है कि दवा कंपनियां आगे आएंगी और इसे मानव उपयोग के लिए विकसित करेंगी।