बेंगलूरु में अपनी मेहनत और संघर्ष भरे दिनों से जुड़ी यादों को उन्होंने अपनी जीवनी में साझा किया है। वर्ष 1952 की बात है। संपंगी स्टेडियम में सुबह ही निकल पड़ते थे और तब तक कदम रूकते नहीं थे जब तक कि थकान हावी नहीं हो जाए।
उन्होंने कहा था कि बेंगलूरु में पहले राष्ट्रीय शिविर में भाग लिया था। कंटीरवा स्टेडियम में यह शिविर तीन सप्ताह तक चला था। यह ओलम्पिक की ओर मेरा पहला कदम था। कब्बन पार्क की सैर व एमजी रोड की कॉफी
फुर्सत के क्षणों को मिल्खा कब्बन पार्क की ताजी हवाओं और खूबसूरती के साथ बिताया करते थे। इसके बाद वे एमजी रोड जाकर कॉफी हाउस में बेजोड़ स्वाद वाली कॉफी की चुस्कियां लिया करते थे।
इस दौरान बलदेव सिंह और कुछ स्थानीय खिलाडिय़ों ने उनके दम-खम और उत्साह को बढ़ाया और तेज रफ्तार की बारीकियां सिखाईं। मिल्खा के अनुसार बेंगलूरु में ही उन्हें अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों की सख्त चुनौतियों का पता चला। वे एक सैनिक थे और खेलों से जुड़े बड़े मुकाबलों के बारे में कम ही जानते थे। मिल्खा ने कहा था कि बेंगलूरु से ही उन्हें ओलम्पिक और एशियन खेलों के बारे में पता चला था।
यहीं से उन्होंने 100 मीटर, 200 मीटर और 400 मीटर की दौड़ के प्रारंभिक गुर सीखे थे। मिल्खा ने बताया था कि वे 85 साल की उम्र में भी सप्ताह में तीन बार जॉगिंग करते थे।
मिल्खा जब भी बेंगलूरु आते अपने प्रशिक्षण ट्रैक पर जाते और उन यादों को तलाश करते जिनमें काफी पसीना, उल्टी में निकला हुआ खून और जिद, जूनून था। उनकी एकमात्र इच्छा बेंगलूरु वासियों से 2013 में अपना सपना साझा करते हुए उन्होंने कहा था कि इस ग्रह को छोडऩे से पहले मेरी एकमात्र इच्छा है कि मैं ओलम्पिक के मंच पर तिरंगा लहराते देखूं और पृष्ठभूमि में राष्ट्रगान बज रहा हो।