यह कहना है कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारूकीर्ति भट्टारक स्वामी का। उनका कहना है कि प्राणी मात्र से प्रेम, परोपकार, त्याग का भाव ही धर्म है। जैन धर्म त्याग का परिचायक है, जिसका उद्देश्य मानव मन में परोपकार का बीज बोना है।
स्वामी ने बताया कि हमारे यहां सोचने के लिए अनेकांतवाद है, आचरण के लिए अहिंसावाद है, बोलने के लिए स्यादवाद है तो आत्म व लोक कल्याण के लिए त्याग है। त्याग का दूसरा नाम है ‘दान’। मन से लोभ की वृत्ति निकलने पर ही दान संभव है। जो उदार, करूण, लोकहित और अन्य के दु:ख दूर करने की भावना रखता है वही दान करता है। दान की भावना में आहार दान, अन्नदान, औषध दान, शास्त्रदान है और अभयदान मुख्य हैं।
भट्टारक स्वामी ने कहा कि देश के नवनिर्माण में युवा मन नव संचार की तरह है। आज की युवा पीढ़ी धर्म से विमुख नहीं। वह किसी रुढि़वादिता का समर्थन भी नहीं करती। मंदिर जाने वाले को ही धर्मात्मा बताना गलत है। घर या कार्यस्थल पर ईश्वर के नाम का जप भी पूजा का ही हिस्सा है। धर्म पालन को अहिंसा के रूप में देख सकते हैं। जैसे शुद्ध शाकाहारी भोजन और सदाचार युवा पीढ़ी के लिए जरूरी है। इस ओर प्रेरित करना गुरुजन, संत और महात्माओं का कार्य है। चारुकीर्ति स्वामी ने बताया कि सर्वधर्म सद्भाव की आवश्यकता सभी धर्मों को है।
महावीर स्वामी का अमर वचन ‘अहिंसा परमो धर्म’ ही सही अर्थ में धर्म है। जैन धर्म हर धर्म का समान रूप से स्वागत करता है। केवल धर्म जानने वाला या उपवास करने वाला ही धर्मात्मा नहीं होता। इसके साथ सदाचार की भावना आवश्यक है। युवा पीढ़ी को इस ओर प्रवृत्त करने का प्रयास होना चाहिए। जैसे कोई भी कार्य करते समय हमारे मन में क्रोध, मोह, माया, लोभ आदि कषाय नहीं होने चाहिए। पूजा मन की शुद्धि, ईश्वर के प्रति समर्पण और भविष्य के लिए की जाती है। उस समय कषाय नहीं रहता। प्रस्तुति – मुनि पूज्य सागर
समाज कल्याण के लिए निकालें समय
अभय दान: अभयदान आत्मा के ध्येय, हिम्मत और अंतर्मन की शक्ति है। जो हरवक्त अहसास कराती है कि ‘मैं हूं डरो मत’। यदि अंतरमन का भय दूर करना है तो आहार दान करें। यह दान उत्तम पात्र यथा मुनि, संत, ब्रह्मचारी, अतिथि, असमर्थ, अनाथ या आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को किया जा सकता है।
शास्त्र दान: यह शिक्षादान है। समाज को आज हर कदम पर शिक्षित करने की आवश्यकता है। परिवर्तनशील परिस्थिति में शिक्षा के पैमाने बदले हैं। इसीलिए आज के दौर में शिक्षा को नए दृष्टिकोण की जरूरत है। अत: सही शिक्षा के लिए शिक्षण संस्थाओं का सुचारू संचालन जरूरी है। असमर्थ विद्यार्थियों को स्कॉलरशिप, पाठ्य सामग्री की व्यवस्था, पुस्तकालय निर्माण इत्यादि शास्त्रदान का स्वरूप है।
औषध दान: चिकित्सा संस्थाओं का निर्माण कर औषधदान किया जा सकता है। समाज में जरूरत के मुताबिक ऐसी सुविधाओं को और आसान बनाने की जरूरत है। स्वामीजी ने इन सभी दान में समयदान को भी जोड़ा और बताया कि आज के व्यस्त दौर में परोपकार के लिए समय निकालना भी एक प्रकार का दान है। इसके लिए समाज कल्याण के लिए एक घंटा या सप्ताह में से एक दिन निकाला जा सकता है। समय दानी व्यक्ति देश व समाज के समयच में सारगर्भित परिवर्तन ला सकते हैं। जीवन में भक्ति और परोपकार का संतुलन जरूरी है। एक के अभाव में दूसरा संभव नहीं।