मुनि ने तप लाभ की विवेचना करते हुए कहा कि तपस्या आत्मदर्शन के लिए हो, प्रदर्शन के लिए नहीं, तप के साथ नाम ख्याति प्रतिष्ठा व प्रदर्शन की भावना जुड़ जाती है तो तपस्या भी अपना सही अर्थ को खो देती है।
मुनि ने कहा कि साधु को पूजा, सत्कार और सम्मान की अवस्था में भी साम्योग रखना चाहिए। चिंतन रहे कि यह पूजा और सत्कार मेरा नहीं मेरे चरित्र आचरण और साधुत्व का है। जो आत्मस्थ है, वही आत्मवान है, जो शांत है वही संत है, जो मौन है, वही मुनि है।