चिंता, मानसिक आघात
केएससीपीसीआर के अनुसार सातवीं कक्षा में पढऩे वाले बच्चों की औसत आयु बेहद कम होती है। इस उम्र में सार्वजनिक परीक्षा (Public Exam) किसी भी तरह से बच्चे की योग्यता, ज्ञान या कौशल का मूल्यांकन करने में मददगार साबित नहीं होगी। ऐसी परीक्षाओं से बच्चों में चिंता और मानसिक आघात (Mental Trauma) का खतरा बढ़ता है। केएससीपीसीआर ने पूछा है कि आरटीइ अधिनियम और अन्य संवैधानिक प्रावधान के तहत नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के जनादेश के बावजूद इस तरह का निर्णय क्यों लिया गया। केएससीपीसीआर के अनुसार यह नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा के प्रावधान का सरासर उल्लंघन होगा। हालांकि मंत्री ने आरटीइ अधिनियम को संशोधित करने की बात कही है।
परीक्षा की इजाजत नहीं
आरटीइ का हवाला देते हुए केएससीपीसीआर ने कहा है कि धारा 30(1) में साफ उल्लेख है कि बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक किसी प्रकार के बोर्ड या सार्वजनिक परीक्षा की इजाजत नहीं है। आरटीइ (rte) अधिनियम की संशोधित धारा 16 में भी उल्लेख है कि कक्षा पांच और आठ के शैक्षणिक वर्ष के अंत में नियमित परीक्षा ली जा सकती है। बच्चे के फेल होने की स्थिति में उसे दूसरा मौका मिलना चाहिए। फिर से विफल होने की स्थिति में यह सरकार का निर्णय होगा कि प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक बच्चे को किसी कक्षा में रोकना है या नहीं।
केएएमएस रखता है अलग राय
एसोसिएटेड मैनेजमेंट ऑफ प्राइमरी एंड सेंकेंडरी स्कूल्स इन कर्नाटक (केएएमएस) ने परीक्षा का समर्थन किया है। केएएमएस के महासचिव डी. शशिकुमार का कहना है कि बच्चों को किसी कक्षा में ना रोकने का सबसे अधिक असर बच्चों के ना सीखने पर पड़ रहा है। कक्षा पांच के बाद और कक्षा आठ के बाद विद्यार्थियों का एक बार मूल्यांकन होना चाहिए। असफल होने वाले विद्यार्थियों को परिणाम घोषित होने के एक माह के भीतर दूसरे प्रयास की अनुमति दी जानी चाहिए। तब भी सुधार ना हो तो बच्चे को कक्षा में रोकने की जरूरत है।