आध्यात्मिक दृष्टि से खास महत्ता है रथ की
जैन मतानुसार 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ व भगवान श्रीकृष्ण एक ही के परिवार से थे। जैन शास्त्र में वर्णित कथा के अनुसार समाज के वरिष्ठ कांतिलाल खोडनिया बताते हैं कि नेमिनाथ भगवान की बारात ठाठ-बांट के साथ शौरीपुर से जुनागढ़ की ओर जा रही थी। जैसे ही नेमिकुमार भगवान दूल्हा बनकर रथ पर सवार होकर राजुल राजमती को ब्याहने के लिए निकले, उनके कानो में निरीह पशुओं का करूण क्रन्दन सुनाई दिया। उन्होंने तुरंत अपने रथ को मोड़ा तथा मंत्री को पशुओं के चीत्कार का कारण पूछा। इस पर मंत्री ने बताया कि राजन बारात के स्वागत में भोजन के लिए इन पशुओं का वध किया जाएगा। यह सुनते ही नेमिनाथ स्तब्ध रह गएए उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली कि मेरे निमित्त इन निरीह पशुओं की हिंसा, नहीं मुझे यह विवाह नहीं करना है। इतना कहते हुए उन्होंने रथ गिरनार गुजरात के पर्वत की ओर मोड़ दिया और वहां जाकर साधना में लिन हो गए। इसी गिरनार पर्वत से उनके तप, ज्ञान और मोक्ष कल्याणक हुए। उधर, राजुल, जिससे नेमिकुमार का विवाह होना था, वह भी नेमिकुमार के मार्ग पर चलीं और आर्यिका दीक्षा धारण कर साधना में लीन हो गई। इसलिए धर्म की प्रभावना, अहिंसा का संदेश आौर भगवान के विहार के लिए प्रतीक के रूप में रथ को हर वर्ष नगर भ्रमण के लिए निकाला जाता है।
हर समाज के लोगों की उमड़ती है भीड़
रथयात्रा देखने के लिए जैन समाज की नहीं, सकल समाज विशेषकर आदिवासी समाज की उत्सुकता ज्यादा रहती है। बिना किसी सूचना के आदिवासी समाज के लोग वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसरण में हर बार द्वितीया को होने वाले रथोत्सव को नहीं भुलते और रथ दर्शन कर अक्षत-पुष्प आदि से स्वागत करते है। वे यहां लगने वाले मेले में खरीदारी का भी भरपूर आनंद लेते हैं।