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भरतपुर

भरतपुर स्थापना दिवस: फतहगढ़ी के एक ही घाट पर शेर और गाय पीते थे पानी

– एक दिन कुंवर सूरजमल शिकार खेलते समय फतहगढ़ी तक निकल आए थे और उसने नदी के घाट पर शेर तथा गऊ को एक घाट पर पानी पीते तथा सघन जंगल में निर्भीकता के साथ विचरण करते हुए देखा था। आश्चर्य से आत्मविभोर होकर नागाजी की कुटिया (वर्तमान मंदिर श्रीबिहारी) पर दर्शनों के लिए पहुंच गए। यहां उनको पता चला कि यह तपोभूमि अजेय, दुर्भेध, निश्चक तथा निर्भीक स्थान है। इस प्रकार नागा साधु की अनुकंपावरण करके सूरजमल ने इस स्थान पर ही राजधानी बनाने का निश्चय कर लिया।

भरतपुरFeb 17, 2020 / 10:13 pm

Meghshyam Parashar

भरतपुर स्थापना दिवस: फतहगढ़ी के एक ही घाट पर शेर और गाय पीते थे पानी

भरतपुर स्थापना दिवस: फतहगढ़ी के एक ही घाट पर शेर और गाय पीते थे पानी

भरतपुर. मत्स्य संघ निर्माण 18मार्च1948 ईस्वी से पूर्व भरतपुर नगर जाट प्रशासित राज्य की समृद्ध, वैभवशाली राजधानी तथा ब्रज संस्क्रति का प्रमुख केंन्द्र था। 18वीं सदी के प्रारम्भ में यह क्षेत्र सघन जंगल झाड़ी तथा पानी के जमाव से सुरक्षित था और रूपारेल, बाणगंगा बरसाती नदियां इस क्षेत्र को पूर्वात्तर तथा दक्षिण पश्चिम दो भागों मे विभाजित करती थी। इस शताब्दी के प्रथम दशक में ठाकुर खेमकरन सोगरिया ने महात्माा नागाजी की अनुकंपा से पूर्वोत्तर भाग में एक अति ऊंचे टीले पर फतेहपुर, फतेहगढ़ी का निर्माण करा लिया था। खेमकरन सोगरिया का पूर्वकाल से ही इस गढ़ी के आसपास ऊन्देरा, चिकसाना, नौंह, बछामदी, जघीना, तुहीया, सोगर, उबार, अबार, सेवर, मलाह, अघापुर सहित रूपवास परगने के क्षेत्रों पर अधिकार था और राजस्व वसूल करना था।
इसी काल में ठाकुर बदन सिंह डीग, सिनसिनी, अऊ आदि किलों का निर्माण कराकर अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार करने मे मनुष्य को ज्ञात सभी उपायों से काम लिया। यह सिनसिनी सरदार मिर्जा राजा जय सिंह को प्रसन्न करके ब्रजराज की उपाधि के साथ-साथ बाकायदा आगरा दिल्ली और जयपुर राज मार्गों पर गश्त करने व पथकर वसूल करने का अधिकारी भी बस गया। इस प्रकार बदन सिंह को प्रभुत्व उपाधि और राज्य क्षेत्र तीनों चीजें प्राप्त हो गई , जो अन्य किसी जाट सरदार के पास नहीं थी।
भरतपुर के पास सिनसिनवारों के अलावा एक अन्य प्रमुख जाट परिवार सोगर गांव के सोगरवालों का था। यह चारों ओर से दलदल से घिरा था और रक्षा और सामरिक दृष्टि से यह आदर्श स्थान था। मुगलों, पठानों, अफगानों से जाटों की झड़पें हुआ करती थी। युद्ध के समय बाणगंगा और रूपारेल नदियों का पानी आसपास के क्षेत्र को जलमग्र करने के लिए छोड़ा जा सकता था। इससे शत्रु आगे न बढऩे पाए। 18वीं शताब्दी में रुस्तम व उसके यशस्वी पुत्र खेमकरण सोगरिया का इस क्षेत्र पर अधिकार था। वर्षों तक वह और उसका कुटुम्ब फलता-फूलता रहा। उनका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ती गई। यहां तक कि सिनसिनवार भी सोगरियों में विवाह करना अपनी शान समझते थे। बदनसिंह की मां सोगर के समृद्ध सरदार अचलसिंह सोगरिया की बेटी राधा थी। जिसे भरतपुर राजवंश की प्रथम राजमाता होने का गौरव प्राप्त हुआ। बदनसिंह अपने बिल्कुल पड़ोस में किसी प्रतिद्धंद्वी की शक्ति को सहन करने को तैयार नहीं था। इसलिए 1732 ईस्वी में उसने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को आक्रमण के लिए भेजा। सोगरिया लोग जमकर लड़े, लेकिन हार जाने पर उन्होंने नए शासन को स्वीकार कर लिया। फतहगढ़ी, चौबुर्जा सूरजमल के अधिकार में आ गया। बदन सिंह अपने पुत्र को विजय की आवश्यकता और समझौते की उपयोगिता दोनों ही सिखलाई। सोगरिया डूंगो को विरोधी न बनाकर, उनके सुलगते क्रोध को व्यवहार, कौशल, सदभावनात तथा अनुनय-विनय द्वारा शांत कर दिया गया।
लोकवार्ता के अनुसार एक दिन कुंवर सूरजमल शिकार खेलते समय फतहगढ़ी तक निकल आए थे और उसने नदी के घाट पर शेर तथा गऊ को एक घाट पर पानी पीते तथा सघन जंगल में निर्भीकता के साथ विचरण करते हुए देखा था। आश्चर्य से आत्मविभोर होकर नागाजी की कुटिया (वर्तमान मंदिर श्रीबिहारी) पर दर्शनों के लिए पहुंच गए। यहां उनको पता चला कि यह तपोभूमि अजेय, दुर्भेध, निश्चक तथा निर्भीक स्थान है। इस प्रकार नागा साधु की अनुकंपावरण करके सूरजमल ने इस स्थान पर ही राजधानी बनाने का निश्चय कर लिया। बसंत पंचमी सन् 1733 को सर्वप्रथम शक्ति की स्थापना फुलवारी में कराई गई। विविध वाद्यों के मध्य बालचंद, चंद्रभान, सोमनाथ आदि कुलपुरोहित के मंत्रोच्चार के साथ प्रधान शिल्पी अमरसिंह ने राजकुमार सूरजमल के द्वारा किले का शिलान्यास कराया। ज्ञातवंश के लेखक के अनुसार प्रधान शिल्पी अमरसिंह का परिवार अब भी बुध की हाट में है और इनके पास शिलान्यास में प्रयोग किए गए चांदी की परात, फाबड़े, गज इत्यादि मौजूद है। अमरसिंह को सौ बीघा जमीन बीनारायण गेट बाहर तथा अनेक उपहार कार्य सम्पन्न होने पर दिए गए। इन्हीं में से जीवाराम नाम के उस्ताद महाराजा जसवंत सिंह के समय में राजसेवा में थे।
राजधानी का नामकरण
एकमात्र ब्रिटिश शासनकालीन गजेटियरों ने भरतपुर नामकरण की संज्ञा तथा शब्द में भ्रांतियां पैदा कर दी है। भरत के नाम पर इसका नाम भरतपुर रखा गया। दूसरा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर भरतपुर पड़ा था। कुछ शोध जिज्ञासुओं ने गजेटियरों का अंधानुकरण निष्कर्ष निकाला कि सूरजमल ने श्रीराम के नाम पर राम राम साहब, शक्ति के स्त्रोत श्रीलक्ष्मणजी को इष्टदेव और तृतीय भ्राता भरत के नाम पर अपनी भावी राजधानी का नाम भरतपुर रखा गया, लेकिन भरतपुर शहर की भौगोलिक स्थिति भू संरक्षण तालिका से पता चलता है कि गिर्द सड़क से शहर का धरातल अत्यधिक निचान पर है। इसलिए भरथ-भर्त करके बसाया गया नगर ही भरथपुर है। 1735 ई. में प्रथम दरबारी आचार्य शिवराम भी भरथपुर नाम को प्रमाणित करते हैं। ब्रजभाषा में त तथा थ दोनों व्यंजनों का अपने स्थान पर सामान्य प्रयोग होता है। प्रारंभ में इस नगर का नाम भरथपुर और कालावधि में जाट राज्य तथा राजधनी भरतपुर के नाम से प्रसिद्ध हो चुकी थी।
किले को बनाने का काम 1733 ई. में आरंभ हुआ। एक बार शुरू हो जाने के बाद निर्माण कार्य आठ वर्ष तक रुका ही नहीं। दिल्ली, आगरा, जयपुर के राजकारीगरों ने नियमित निर्माण कार्य किया। इसमें हजारों लोगों को रोजगार प्रदान किया गया। जब यह किला पूरा बनकर तैयार हो गया, तब यह हिंदुस्तान का सबसे अजेय किला था। विमान के आविष्कार से पहले इसे जीतना असंभव था। लार्ड लेक का मान इसी लोहागढ़ के किले ने धूल में मिलाया था। 1805 ई. में जनवरी से अप्रेल तक चार महीने लार्ड लेक भरतपुर पड़ा रहा, लेकिन भरतपुरिया जाटों ने अंग्रेजों को ऐसी अपमानजनक पराजय दी, वैसी हिंदुस्तान में अन्यत्र कहीं नहीं मिली। यह किला कई दृष्टिकोणों से एक असाधारण रचना थी, गिर्द की सड़क, खाई एवं मिट्टी का ऐतिहासिक असाधारण परकोटा तत्पश्चात् सुजानगंगा नहर तत्पश्चात दुर्ग निर्माण जिसमें परिंदा भी प्रवेश नहीं कर सकता था। इसमें दस बड़े-बड़े दरवाजे थे, जिनमें आवागमन पर नियंत्रण था। उनके नाम है मथुरा दरवाजा, बीनारायण दरवाजा, अटलबंध, नीम दरवाजा, अनाह दरवाजा, कुम्हेर गेट, चांदपोल गेट, गोवर्धन दरवाजा, जघीना दरवाजा, सूरजपोल है जो इस ऐतिहासिक नगर की धरोहर है। भरतपुर किले में 41 बुर्ज शहर पनाह तथा आठ किले की बुर्ज बनाई गई, जो सुरक्षा की दृष्टि से अद्वितीय एवं श्रेष्ठ थी। भरतपुर की शासन व्यवस्था अत्यंत समृद्धशाली, परोपकारी, वैभवशाली एवं जनकल्याणकारी थी। शासन प्रबंध उच्च कोटि का था और वे जनता के सुख-दुख को अपना सुख-दुख मानते थे। इसलिए अभी लोग उन्हें भूले नहीं है। उनकी ओर से निर्मित किले, महल, मंदिर, सरोवर, बाग बगीचे आदि आज भी दर्शनीय है। भरतपुर राज्य का नाम हिंदुस्तान में ही नहीं अपितु विश्व में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उसके पराक्रमी शासकों का सभी लोहा मानते हैं। यहां के शासकों एवं जनता ने मुगलों व अंग्रेजों को समान रूप से पराजित किया है। भरतपुर राज्य की धरोहरों, शिलालेख, लौह स्तंभ व अन्य ऐतिहासिक पुरातात्विक अवशेष आज भी दर्शनीय है। भरतपुर दुर्ग विश्व का एकमात्र ऐसा दुर्ग है जिसे कोई जीत नहीं सका। सतत् एक ही पचरंगी ध्वज फहरने का गौरव सिर्फ भरतपुर दुर्ग को ही जाता है। ऐसी वैभवशाली भूमि एवं राज्य वाशिंदे आज भी भरतपुर मरदाने तेरी जग जाहिर तलवार पर गर्व नहीं करेंगे तो और कौन करेगा। किले के विशाल परकोटे पर सैनिकों की सुरक्षा का भी समुचित प्रबंध किया गया था। परकोटा की छत पर चरखों पर चढ़ी हुई सैकड़ों तोप और जजाल जब एक साथ गतिमान हो जाते थे, तब ऐसा प्रतीक होता था मानो कोई भयानक ज्वालामुखी फूट निकला हो। अहमद शाह अब्दाली के भय से भाग कर शाही बजीर इसी दुर्ग में प्राणा रक्षा कर पाया, पानीपत युद्ध में पराजित मराठा सरदारों को यही शरण मिली थी, कंपनी सरकार से पराजित होल्कर भी यहां भयमुक्त होकर रहा था। सन् 1805 में ब्रिटिश कंपनी सरकार को सबसे बड़ी पराजय यही देखने को मिली थी। भारत के गौरव और कीर्ति का प्रतीक यही किला अंग्रेज सरकार की सैनिक शक्ति को 20 वर्ष तक चुनौती देता रहा।
दुर्ग भरतपुर अडिग जिमि हिमगिरि की चट्टान
सूरज के तेज कौ, अब लौ करत बखान।।
इह भरतपुर दुर्ग है, दुस्सह, दुर्जय, भयंकर
जहां जट्टन के छोहरा, दिया सुभट्टन पछार
आठ फिरंगी, नौ गोरा, लड़े जाट कै दो छोरा।।

रामवीर सिंह वर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार एवं इतिहासविद्

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