नगर और आसपास के क्षेत्रों में दोनों डॉक्टरों का अच्छा प्रभाव था। दोनों मृदुल स्वभाव के एवं हंसमुख व्यक्तित्व के थे। गरीबों और दीन दुखियों के इलाज करने के कारण लोग उन्हें भगवान जैसा पूजते थे। घनश्याम सिंह गुप्ता दुर्ग के सूबेदार के वंशज थे। सन 1937 से नागपुर के धारा सभा के लिए दुर्ग असेंबली का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उनका प्रभाव कांग्रेस के बड़े नेता के रूप में स्थापित था। स्वतंत्रता के बाद जनता को पहली बार नेता चुनने एवं अपना मत देने का अवसर मिला था। जनता में भी चुनाव का उत्साह था। उस समय दुर्ग नगर के गांधी चौक में चुनावी सभा आयोजित होते थे।
बसा नगर शंकर तथा, बसा द्वारिका धाम।
स्वर्ण धाम है गुप्त फिर, कैसे हो बदनाम।
पुरखौती हक मानकर, तजत न पद को मोह।
शुकुल मिसिर गोविंद अरू, गुप्त सुभक्त गिरोह।
इस चुनाव में घनश्याम सिंह गुप्त को दोनों डॉक्टरों ने तगड़ी शिकस्त दी थी। गुप्त जी 1035 मतों से जीते थे। दूसरे क्रम में निर्दलीय डॉ. जमुना प्रसाद दीक्षित एवं किसान मजदूर प्रजा पार्टी के मोतीलाल तीसरे क्रम में रहे। सोशलिस्ट पार्टी के हरिप्रसाद चौथे एवं भारतीय जनसंघ के डॉ. डब्ल्यू. डब्ल्यू. पाटणकर पांचवें स्थान पर रहे।