आखिर एक दिन गांव लोगों ने मिलकर इस पर विचार किया और टकराहट व कड़वाहट को कम करने के लिए निर्णय किया कि आज से गांव में लकडिय़ों व कंड़ों से होली नहीं जलाई जाएगी। किसी के भी खेत या बाड़े से पेड़ नहीं काटे जाएंगे। इसके बाद निर्णय हुआ कि गांव के प्रत्येक घर से चंदा एकत्रित कर प्रतीक के रूप में सोने-चांदी की होलिका बनाई जाए। इस पर सभी गांव वाले राजी हो गए तथा प्रत्येक घर से चंदा एकत्रित कर सोने चांदी की होलिका बनवाई और उसे चारभुजा
मंदिर में रख दी।
यूं करते दहन होली के दिन गांव के लोग चारभुजा मंदिर पर एकत्रित होते है। सभी ढोल के साथ ठाठ बांट से सोने-चांदी की होली को लेकर जहां पूर्व में होली का डांडा रोपे थे। वहां जाकर सोने चांदी की होली स्थापित करते है। इसके बाद मंदिर के पुजारी विधि विधान से पूजा अर्चना करते है। इस दौरान गांव की सभी महिलाएं होली के गीत गाती तो पुरूष चंग पर होली के गीत गाकर एक दूसरे के गुलाल लगाते है।बच्चे व युवतियां भी इस आयोजन में शामिल होती है। पूजा अर्चना के बाद होलिका को पूरे सम्मान के साथ पुन: मंदिर में लगाकर स्थापित करते है।
होलिका की कहानी ग्रामीणों की जुबानी
बरसों पुरानी परम्परा जो हम भी निभाते आ रहे है। बहुत वर्ष पहले मां चाुमण्ड़ा के भाव आने के समय माता जी ने चांदी व सोने की होलिका जलाने को कहा था। जिससे ग्राम में सुख शान्ति बनी रहे। इसी के तहत सभी ग्रामवासी होली नहीं जला कर केवल पूजा करते है।
घीसालाल जाट, ग्रामीण सभी ग्रामवासी मंदिर पर एकत्रित होकर पूजा इत्यादि कर होली दहन के स्थल पर जाकर होली की पूजा करते है और बाद में प्रतीकात्मक होलिका को फिर से मंदिर में लाकर रख देते है।
नंदाराम जाट, मुखिया