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भीलवाड़ा

मातृ एवं शिशु वार्ड भी अब पडऩे लगा छोटा

करोड़ों खर्च के बाद भी नहीं मिल रहा लाभ, महिलाएं हो रही परेशानचिकित्सक को जांच में भी आती परेशानी

भीलवाड़ाJul 11, 2019 / 12:31 pm

Suresh Jain

Maternal and infant ward also fell short in bhilwara

Maternal and infant ward also fell short in bhilwara

भीलवाड़ा।
नेशनल हैल्थ मिशन की ओर से जच्चा एवं बच्चा को बेहतर उपचार देने की दृष्टि से दो साल पहले शुरू हुआ महात्मा गांधी चिकित्सालय के पीछे मातृ एवं शिशु इकाई अब छोटी पडऩे लगी है। हॉल भी छोटे पडऩे लगे हैं। जांच करने वाले स्टाफ को परेशानी उठानी पड़ती है। इसके निर्माण पर करीब १६ करोड़ रुपए व्यय हुए थे।
प्रसूति वार्ड नहीं बनाया बड़ा
एक ही वार्ड छह-सात कमरों में चल रहा है। इनमें नर्सिंग स्टाफ एक कमरे में बैठता है। कुछ भी होने पर परिजनों को प्रसूताओं को छोड़कर दूसरे कमरे में स्टाफ को बुलाने जाना पड़ता है। स्टाफ को भी प्रसूता के परिजन को बुलाने के लिए माइक का सहारा लेना पड़ता है। वार्ड छोटे हंै, लेकिन बेड क्षमता से अधिक लगाए गए हैं। इससे प्रसूताओं को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वार्ड में परिजनों के बैठने की भी जगह नहीं है। चिकित्सक के जांच पर आने के दौरान मरीज के परिजनों को बाहर निकालना पड़ता है। रात्रि में प्रसूता के परिजन को सोने तक की जगह नहीं मिलती। सबसे ज्यादा खराब हाल तो ऑपरेशन थियेटर के पास पोस्ट ऑपरेटिव वार्ड के हैं। यहां 40 बेड की क्षमता है, लेकिन 72 लगा रखे हैं। वार्ड में तो सफाई कर्मचारी झाडू-पौछा तक ठीके से नहीं लगा पाते हैं। वार्ड में दुर्गंध आती रहती है व संक्रमण का खतरा भी है।
एमसीआइ के निर्देशों की नहीं पालना
मेडिकल कॉलेज का अंग बनने से पूर्व अस्पताल के निरीक्षण के दौरान मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया की टीम ने वार्डों में दो बेड के बीच कम से कम 5 फीट दूरी रखने के निर्देश दिए थे। उस समय तो प्रशासन ने बेड की संख्या कम कर व्यवस्था कर दी। अब प्रसूताओं की संख्या बढऩे से फिर स्थिति खराब हो गई है। क्षमता से अधिक बेड लगा दिए गए हैं। कई प्रसूताओं को 500 रुपए प्रतिदिन का शुल्क जमा करा कॉटेज वार्ड लेना पड़ रहा है।
मरीजों का उपचार जरूरी
मातृ एवं शिशु इकाई का निर्माण जिला अस्पताल के अनुसार हुआ है। निर्माण के समय एमजीएच में बेड क्षमता 300 थी। मेडिकल कॉलेज से जुडऩे के बाद बेड 525 हो गए। इसके कारण वार्डों में अधिक बेड लगाए गए हैं। एमसीआइ का नियम टूट रहा है, लेकिन मरीजों का उपचार भी जरूरी है।
डॉ. राजन नंदा, प्राचार्य, मेडिकल कॉलेज

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