प्रमेश बताते हैं कि जब उन्हें एचआइवी के बारे में पता चला तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। लगा मानो पूरी जिंदगी ही खत्म हो गई, लेकिन पिताजी ने हिम्मत दी। इलाज के दौरान मैं दिल्ली में एक एनजीओ के संपर्क में आया। यहां और भी लोग मिले जो मेरी तरह ही एचआइवी संक्रमित थे। उनमें से कुछ की शादी हो चुकी थी, दिव्यांशी भी उसी एनजीओ से जुड़ी थीं। हम दोनों में दोस्ती के बाद परिवार की सहमति से अब शादी भी हो गई।
मध्यप्रदेश में सर्वाधिक एचआइवी पीडि़त इंदौर में है और दूसरा नम्बर भोपाल का है। इन सबके बीच एक अच्छी खबर यह है कि एचआइवी पीडि़तों ने जीवन से हार मानकर अवसाद में चले जाने की बजाय मिलजुल कर जीवन जीने की ठानी है। एचआइवी पॉजिटिव जीवनसाथी के साथ खुशहाल जीवन जी रहे हैं। जानकारी के अनुसार भोपाल में बीते तीन साल के भीतर 42 एचआईवी पीडि़त जोड़ों ने विवाह किया है।
मप्र स्टेट एड्स कंट्रोल सोसायटी के मुताबिक मप्र में एड्स का पहला केस 1988 में सामने आया था। भोपाल में पिछले 10 साल में 3000 से ज्यादा एचआइवी पॉजिटिव मिले हैं। प्रदेश में 2005 से अब तक 39114 एड्स पीडि़तों की तलाश की जा चुकी है। 9000 से ज्यादा एचआइवी पॉजीटिव ऐसे हैं, जो आज तक एआरटी (एंटीरेट्रोवायरल ट्रीटमेंट) सेंटर नहीं पहुंचे हैं। महज 31,000 मरीज ही एआरटी सेंटर में पंजीकृत हुए हैं।
मनोचिकित्सक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी बताते हैं कि एचआइवी रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर ही मरीज डिप्रेशन में जाने लगते हैं। उनके इलाज में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि मरीज पहले ही जीने की इच्छा छोड़ देते हैं। ऐसे में दवाओं का असर 50 प्रतिशत तक कम हो जाता है। जबकि शादी की इच्छा रखने वाले मरीजों में दवाओं का तत्काल असर पाया गया है। वे अन्य मरीजों की तुलना में 50 फ ीसदी तेजी से रिकवर कर रहे हैं। इसलिए सेंटर भी एचआईवी मरीजों को आपस में घुलने मिलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
डॉ. हेमंत वर्मा के मुताबिक एचआईवी मरीज शादी कर स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकते हैं, लेकिन यह पूरी प्रक्रिया डॉक्टर के निर्देशानुसार होती है। सबसे पहले पति-पत्नी में एचआइवी संक्रमण का स्टेटस देखा जाता है। पहले दवाओं और नियमित दिनचर्या के आधार पर उसके न्यूनतम स्तर पर लाया जाता है। इसके बाद गर्भधारण से लेकर बच्चे के जन्म तक चिकित्सक से परामर्श लेते रहना चाहिए। संक्रमित महिलाओं के 35 फीसदी बच्चों के संक्रमित होने की आशंका रहती है। वहीं अगर गर्भावस्था के दूसरे महीने में ही इलाज शुरू हो जाए तो यह आशंका 10 से 15 फीसदी ही बचती है।