कारंत में कभी अहंकार नहीं रहा
उमेश ने कहा कि कारंत में कभी अहंकार नहीं रहा। वे बहुत सादगी और सरलता से भरे एक अद्वितीय कलाकार थे। हिन्दी कविता का छंद समझने के लिए उन्होंने हिन्दी साहित्य का गहन अध्ययन किया। उन्होंने नाटक के संगीत में कभी की-बोर्ड को स्वीकार नहीं किया। वे सारे ध्वनि प्रभाव अपने कलाकारों से निकलवाते थे। वे सख्त अनुशासन के हिमायती थे। वे कहते थे कि यदि किसी ने नाटक के संगीत की तारीफ की तो इसका अर्थ यह कि संगीत खराब हुआ है। वे संगीत को नाटक का ही अंग मानते थे। उनका कहना था कि संगीत नाटक का अनिवार्य अंग है, लेकिन ये इतना अधिक भी नहीं होना चाहिए कि नाटक पर ही हावी हो जाए। उमेश ने नाटक ‘स्कंदगुप्त’ का गीत हिमाद्रि तुंग शृंग से… गाया तथा श्रोताओं को भी साथ गाने को कहा। उन्होने कारंत की कुछ और भी संगीत रचनाएं भी सुनाईं।