कहानी : फिल्म मुख्य रूप से मप्र के जबलपुर के दो आम युवा टीटू और मोनू की कहानी है। जो एक अंग्रेज़ी बोलना सीखने की क्लास से शुरू होती है। अगली रात मोनू का घर खाली होने की खबर से उत्साहित दोनों पैसे देकर किसी लड़की को रात भर के लिए घर पर लाने की योजना बनाते हैं। किसी पहचान वाले की मदद से उन्हें एक लड़की मिल जाती है। वो दोनों देर रात बाइक से उसे लेने जाते हैं। मिलते ही वो बताती है कि वो ये सब पहली बार कर रही है और कहती है कि कुछ प्रॉब्लम नहीं होनी चाहिए।
टीटू और मोनू जो ख़ुद शायद पहली बार ऐसा कुछ कर रहे हैं उसे गाड़ी पर बिठाते हैं और घर ले जाते हैं। सुरक्षित घर के भीतर घुसकर दरवाजे बंद कर लेते हैं। फिर अचानक घर का दरवाजा कोई जोर से खटखटाता है। अब असल में फिल्म शुरू होती है। वो घर से उस लड़की को लेकर भागते हैं और रात भर शहर में इधर से उधर भागती कहानी में एक के बाद एक समाज में स्थापित किरदारों का प्रवेश होता है।
एक्टिंग : फिल्म में लगभग सारे ही मुख्य और चरित्र अभिनेता जबलपुर से हैं चाहे वो टीटू और मोनू के रूप में प्रतीक और अंशुल हों या लड़की के रूप में रेखा मिश्रा या फिर अन्य चरित्रों में ऋषि यादव, सारिका नायक, वीनू शर्मा हों। सारे ही अभिनेता अपने चरित्र के साथ बख़ूबी न्याय करते नजर आते हैं और फिल्म के कथानक को प्रभावशाली बनाते हैं। टीटू के किरदार में प्रतीक पचौरी की सहजता और ‘तन्नू भैया’ के किरदार में अमर सिंह परिहार का अभिनय विशेष रूप से प्रभावित करते हैं।
फिल्म की खासियत : फिल्म की विशेषता है इसका देसी हास्य-विनोद और सहजता। फिल्म की भाषा जबलपुर और उसके आस-पास के क्षेत्र में बोली जाने वाली बुंदेलखंडी बोली और उस से प्रभावित हिंदी है। बोली के पास ‘ह्यूमर’ और ‘लय’ की अपनी ताकत होती है और निर्देशक संदीप पांडे ने अपनी बात कहने के लिए उसका भरपूर प्रयोग किया है। चौसर फिरंगी नैतिकता को एक बिलकुल अलग नजरिए से देखती फिल्म है। जो शहरी समाज, पड़ोसी, पुलिसवाले, दोस्त, रिश्तेदार, राजनेता और शिक्षक जैसे सम्बन्धों की गहरी पड़ताल करती है। जहां देश का छोटा शहर ‘स्मार्ट सिटी’ बन जाने को तैयार है। वही स्मार्टनेस किस तरह से उस शहर के आम जन, युवा और राजनीति में प्रवेश कर रही है ये फिल्म देश की उस सुगबुगाहट को ध्यान से सुनने की फिल्म है। देश के छोटे शहर देश की नब्ज होते हैं और इस फिल्म की नब्ज में धड़कती नैतिकता और राजनीति की धक-धक साफ सुनाई देती है।
डायरेक्शन : निर्देशक संदीप पांडे बताते हैं कि एक छोटे शहर में बड़े सपने की तरह देखी गई इस फिल्म के निर्माण में लगभग तीन वर्ष का समय लगा। जो हर सम्भव चुनौती से भरा हुआ था। रंगकर्म के संस्कारों से सिनेमा को साकार कर पाने की यात्रा में ये फिल्म एक सामूहिक प्रयास रही। टीम के हर सदस्य के साथ ही शहर भर के सहयोग से ये ‘अपने शहर के सिनेमा’ का सपना न सिर्फ साकार हो पाया बल्कि मल्टीप्लेक्स की रिलीज तक भी पहुंचा। फिल्म देशज लहजे में अपनी रवानी से बहती है और उसके बैकग्राउंड में बजता ‘श्याम बैंड, जबलपुर’ का ब्रास सेक्शन दर्शक के मन को खींचकर बुंदेलखंड में पहुंचा देता है। फिल्म की एक और खासियत है उसका ‘क्लाईमेक्स’ जो कि पारम्परिक फिल्म की तरह न होकर एक नए तरीके से ख़ुद को खोजने की कोशिश करता है।
तकनीकी स्तर पर थोड़ी बहुत जद्दोजहद करती है फिल्म
बहरहाल ये फिल्म एक ईमानदार कोशिश है। जिसे ज़्यादा से ज़्यादा दर्शकों तक पहुंचना चाहिए। भीतरी हिंदुस्तान के सिंगल स्क्रींस में ये फिल्म काफी सराहना बटोर सकती है। मल्टीप्लेक्स के व्यवसाय का समीकरण इस फिल्म को कैसे अपनाएगा ये सोचने का विषय है। इस वक्त में इस तरह के सिनेमा को हर सोचने-समझने वाले सिनेमा प्रेमियों के समर्थन की जरूरत है। संभावना है की इस आमद का स्वागत आम दर्शक बड़े उत्साह से करेगा। फिल्म तकनीकी स्तर पर जरूर थोड़ी बहुत जद्दोजहद करती है पर उसके बावजूद ये फिल्म न सिर्फ मप्र बल्कि देश भर के छोटे शहरों में पनपते सिनेमा के लिए एक आदर्श की तरह खड़ी हो सकती है। बशर्ते मुंबई के जगमगाते सिनेमा के मायाजाल के बीच इसे पर्याप्त ‘स्क्रीनÓ मिल सकें।