अधिकतर आबादी बौद्ध धर्म को मानती है
मिश्र ने बताया कि यहां के स्थानीय निवासी भेड़ तथा याक पालने के साथ ग्रीष्म ऋतु में नदियों की तली में जौ की खेती करते हुए जीवनयापन करते हैं। यहां के लोग एक-दूसरे से काफ़ी जुड़े हुए हैं। जब भी खेती का समय आता है तो ये एक-दूसरे के साथ खेती में उनका हाथ बंटाते हैं। वैसे तो यहां के लोग आर्य सभ्यता से सम्बन्ध रखते हैं, लेकिन फिर भी यहां कि अधिकतर आबादी बौद्ध धर्म को मानती है। यहां का कोई घर ऐसा नहीं जहां प्रार्थना चक्र और स्तूप देखने को न मिले। प्रार्थना चक्र घुमाने से सभी पाप धुल जाते हैं, ऐसी इनकी धार्मिक मान्यता है। यहां के लोग बहुत ही खुशमिजाज होते हैं। इन्हें अपनी संस्कृति और इतिहास का जश्न मनाना पसंद है। शादी हो या फिर कोई त्योहार ये लोग उसे अपने पुराने रिवाजों के अनुसार ही मनाते हैं।
जनजातीय जीवन शैली की अनुपम झलक देखने को मिलती है
संग्रहालय एसोसिएट श्रीकान्त गुप्ता ने बताया कि यहां के अधिकतर त्योहार फसलों और धर्म से संबंधित हैं, जिसमें लोसर उत्सव, सुरपुला तथा लद्दाख महोत्सव मुख्य है। 15 दिन तक चलने वाले लद्दाख महोत्सव के दौरान लद्दाख क्षेत्र की सदियों पुरानी संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं और जनजातीय जीवन शैली की अनुपम झलक देखने को मिलती है। स्थानीय लोग अधिकतर लद्दाखी भाषा में संवाद करना पसंद करते हैं। इनका मुख्य भोजन थूकपा, मोमो, सोताजी, फेमर तथा मक्खन से निर्मित गुड-गुड चाय जैसे खाद्य पदार्थों का सेवन करते हैं। यहां की पारंपरिक वेश-भूषा स्वत: ही ध्यानाकर्षित करती है। लद्दाख में पुरुष सामान्य तौर पर गौचा नाम की एक लंबी ऊनी पोशाक पहनते हैं। महिलाएं भी एक लंबी ड्रेस पहनती हैं जिसे कूनतोप और बोक कहा जाता है। पिरक नाम की एक लंबी टोपी भी यहां के लोग पहनते है जो ठंड से तो बचाता ही है, साथ ही अब यह एक फैशनेबल परिधान का दर्जा पा चुका है। किसी भी लद्दाखी परिवार में रसोई सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। लद्दाखी रसोई एक सामुदायिक कमरे की तरह है जहां मेहमानों का स्वागत और मनोरंजन होता है और परिवार आपस में मिलते हैं तथा साथ में बैठकर खाते हैं।