बात छोटी-सी है, मगर हमारे हुक्मरानों को समझ नहीं आती। नींव पक्की हो तो ही इमारत मजबूत होती है। शिक्षा में भी यही सत्य है। उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ के न्यायाधीश शील नागू और दीपक अग्रवाल की युगलपीठ का हमें आभार मानना चाहिए कि उन्होंने इस तथ्य को एक बार फिर से प्रस्तुत करके नई राह दिखाई है। युगल पीठ ने एक फैसले में कहा है कि प्राथमिक शिक्षकों की योग्यता और वेतन दोनों ही सुधारे जाने चाहिए।
असल में शिक्षा व्यवस्था का लगातार पतन हो रहा है। शिक्षा की नई नीति तो लाई गई हैं, मगर सरकारी स्कूलों की स्थिति किसी से छिपी नहीं। वर्तमान में माता-पिता को लगने लगा है कि बच्चे का करियर अच्छा बनाना है तो निजी स्कूल में भर्ती करो। सरकारी स्कूल में वे ही बच्चे प्रवेश ले रहे हैं, जिनके पालक निर्धन हैं, या जो छात्रवृत्ति के सहारे ही पढ़ाई पूरी कर सकते हैं। अफसोसजनक तो यह है कि निजी स्कूलों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। गांव-गांव में खुले निजी स्कूलों के शिक्षकों की योग्यता को जांचने-परखने की कोई पुख्ता व्यवस्था है ही नहीं। ऐसे में हायर सेकंडरी पास हजारों की संख्या में युवक-युवती ही शिक्षक बन बैठे हैं। वे क्या पढ़ा रहे हैं और बच्चों को क्या सिखा रहे हैं, भाग्य भरोसे ही है।
शिक्षकों की भर्ती के कमजोर मापदंडों ने पूरी व्यवस्था को चौपट कर दिया है। दुःखद यह है कि कुछ अपवाद छोड़ दें तो शिक्षक भी इस व्यवस्था को सुधारने की पहल नहीं करते। आज आप किसी को भी शिक्षक के तौर पर भर्ती कर लें, वह आपको शिकायत का मौका देगा ही नहीं। उसे मालूम है कि सालभर में पढ़ाना ही कितना है। कभी टीके लगाना है, कभी चुनाव कराना है, कभी जनगणना तो कभी पशुगणना करना है। इतने तरह के कामों के बीच पढ़ाना एक अस्थायी काम जैसा ही रह जाता है।
‘वे सुधारेंगे नहीं और हम सुधरेंगे नहीं’ जैसे हालात हैं। यह स्थिति सिर्फ एक प्रदेश में हो, ऐसा भी नहीं है। हां, दिल्ली सरकार ने एक कोशिश करके उदाहरण पेश किया है। उच्च स्तरीय प्रशिक्षण, मजबूत आधारभूत ढांचा और दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति के दम पर वहां के सरकारी स्कूलों की सूरत बदली है। यह इतना मुश्किल काम भी नहीं है, जितना सरकारों ने सोच लिया है। अधिकारी और राजनेता यदि सरकारी स्कूलों को स्वयं के बच्चों की पढ़ाई के योग्य बनाने की ठान लें तो बुनियाद भी मजबूत हो जाएगी और इमरत में भी कंगूरे दमकने लगेंगे।
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