-नर्मदा परिक्रमा
साल 2018 में दिग्विजय ने पत्नी अमृता राय के साथ छह माह तक नर्मदा की तकरीबन 3,300 किलोमीटर की पदयात्रा की, इस दौरान उन्होंने प्रदेश की 110 विधानसभा सीटों को कवर किया। दिग्विजय ने इस यात्रा में अपने पुराने संबंधों को पुनर्जीवित किया। इसे विधानसभा चुनावों की तैयारी से जोड़कर भी देखा गया।
-एकात्म यात्रा
भाजपा सरकार ने चुनाव से ठीक पहले साल 2017 में शंकराचार्य की 108 फीट ऊंची भव्य प्रतिमा स्थापित करने के लिए पूरे प्रदेश में एकात्म यात्रा आयोजित की। समापन जनवरी 2018 में हुआ। प्रदेश के चार अलग-अलग स्थान उज्जैन, अमरकंटक, पंचमठा और ओंकारेश्वर से निकली यात्राओं से पूरे प्रदेश की विधानसभाओं को कवर करने की कोशिश हुई। यात्रा ने 2175 किमी का सफर तय किया।
-उत्तर प्रदेश में सपा की विजय यात्रा
उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इन दिनों विजय यात्रा निकाल रहे हैं। ये यात्रा प्रदेश के सभी जिलों को कवर करेंगे। इससे पहले अखिलेश 2011 में भी यात्रा निकाली थी। अखिलेश के साथ ही उनके चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल यादव परिवर्तन यात्रा निकाल रहे हैं।
-राजस्थान में गौरव यात्रा
भाजपा ने राजस्थान में साल 2018 में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने पूरे प्रदेश में राजस्थान गौरव यात्रा निकाली। 40 दिनों की इस यात्रा में भाजपा की उपलब्धियां गिनाने की कोशिश की गई।
-किसान न्याय पद यात्रा
कांग्रेस ने राजस्थान में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले किसान न्याय पद यात्रा निकाली थी। इसका नेतृत्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने किया।
एक्सपर्ट व्यू…इस तमाशे का फायदा हर किसी को नहीं
वरिष्ठ राजनीतिक समीक्षक भानु चौबे का कहना है कि, महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से भारत में ये परिपाटी शुरू हुई। वो यात्रा शासन के खिलाफ की गई थी। वर्तमान में विपक्ष जो यात्रा निकालता है वो खुद को दांडी यात्रा से प्रभावित करार देता है और सत्ता पक्ष जो यात्रा निकालता है वो ध्यान भटकाने की कोशिश होती है। दरअसल, यात्राएं बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाती हैं और नेता-कार्यकर्ता एक रथ पर सवार होकर भीड़ के साथ मतदाताओं के सामने से गुजर जाते हैं।
वहीं, मतदाता अपने मुद्दों पर बात ही नहीं रख सकता है और तमाशा देखकर स्मृति मन बनाकर रख लेता है। चूंकि, मतदाता की याददाश्त कमजोर होती है, इसलिए जरूरी नहीं है कि हर यात्रा से वोट हासिल हो ही जाएं। चुनाव के ठीक पहले जनआशीर्वाद और जन आक्रोश जैसी यात्राएं निकाली जाती हैं, मगर हर किसी को उनका फायदा नहीं मिलता। फिर भी ये इस दौर में प्रचार का एक नया तरीका बन गया है और इसे छोड़ना भी राजनीतिक दलों के लिए बहुत फायदेमंद नहीं है।