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Reality Check: बदहाली में शिक्षा व्यवस्था, पांच सालों में टॉप से बॉटम पर पहुंचा हमारा प्रदेश

Reality Check: बदहाली में शिक्षा व्यवस्था, पांच सालों में टॉप से बॉटम पर पहुंचा हमारा प्रदेश

भोपालAug 03, 2018 / 12:26 pm

Manish Gite

Reality Check: बदहाली में शिक्षा व्यवस्था, पांच सालों में टॉप से बॉटम पर पहुंचा हमारा प्रदेश

5 साल में कहां: दसवीं : 2013 का टॉपर राजगढ़ अब 12वें स्थान पर,बारहवीं: फिसड्डी शिवपुरी 5 साल में नहीं सुधरा शिक्षा

भोपाल (पत्रिका ब्यूरो)। प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था भगवान भरोसे है। कक्षा 10वीं और 12वीं में फेल होने वाले बच्चों का प्रतिशत 33 से कम नहीं हो पा रहा है। वर्ष 2013 में दसवीं में राजगढ़ जिला अव्वल था। 2018 में यह 12वें नंबर पर खिसक गया। इस साल टॉपर बना देवास 2013 में 7वें नंबर पर था। महज 28.47 प्रतिशत नतीजे के साथ आखिरी पायदान पर रहे शिवपुरी का परिणाम सुधरा तो, लेकिन वह टॉप टेन जिलों की रेस से काफी दूर रहा।


12वीं के परीक्षा परिणाम में 2013 में टॉपर दमोह फिसलकर 2018 में 10वें नंबर पर आ टिका। फिसड्डी शिवपुरी जिले की स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ। यह लगातार निराशाजनक प्रदर्शन ही कर रहा है। 2018 में आखिरी पायदान पर मुरैना रहा। 2013 में 17वें स्थान पर रहे अशोकनगर ने 84 फीसदी से अधिक परिणाम के साथ 2018 में अव्वल बना।

 

प्रदेश का एक भी जिला पांच साल में शिक्षा का मॉडल नहीं बन पाया। टॉपर जिले रैंकिंग और परिणाम में गिरे। शिक्षकों की कमी जस की तस है। बिजली, पानी, मैदान की व्यवस्था में 5 साल में खास बदलाव नहीं हुए। 2012-13 के बाद शिक्षक भर्ती नहीं होने से 14 लाख छात्र अतिथि शिक्षकों के सहारे हैं। आदिवासी क्षेत्रों में हालत बदतर हैं। सांसद जनार्दन मिश्रा ने लोकसभा में कहा, शिक्षा विभाग स्कूलों को काम चलाऊ ढंग से चला रहा है।

 

 

शौचालय खूब बने पर पानी व सफाई नहीं
सरकारी दावों के मुताबिक प्रदेश के 95 फीसदी स्कूलों में शौचालय बनाए जा चुके हैं। 2013 की तुलना में यह 35 फीसदी अधिक हैं। तब 60 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय थे, लेकिन सच्चाई यह है कि बड़ी संख्या में शौचालय ऐसे हैं जो काम नहीं करते। सफाई और पानी की कमी सहित दूसरी वजहों से बंद ही रखा जाता है। बालिका शौचालयों में जरूर महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है, लेकिन अधिकतर सफाई के अभाव में खंडहर हो चुके हैं। इनमें बीमारी का खतरा अलग बना रहता है।

सुधार के ये कदम
-आओ मिल बांचे कार्यक्रम चलाकर जिलों में अफसर से लेकर बड़े शिक्षाविदों को अतिथि बनाकर स्कूलों में भेजा।
-विद्यार्थियों में विषयवार रूचि रख अलग से कमजोर बच्चों को भी मजबूत बनाया गया।
-विषय विशेषज्ञों ने भी कमजोर विषयों पर ध्यान दिया।
-सरकार ने उत्साहवर्धन किया, लेकिन निरंतरता की कमी से प्रदेश में शिक्षा के स्तर में अनिश्चितता बनी रही।

 

 

पांच वर्ष में स्कूल भवन, शौचालय, शिक्षकों की व्यवस्था, विद्यालयों में बिजली-पानी की व्यवस्था पर बहुत काम हुआ है। अध्यापकों का संविलियन किया है। मेधावी छात्र योजना, लैपटॉप वितरण योजना और कोचिंग से छात्रों का भविष्य उज्ज्वल हुआ है।
-दीपक जोशी, स्कूल शिक्षा राज्यमंत्री
 

रिजल्ट: 33 फीसदी से ज्यादा फेल
10वीं और 12वीं दोनों कक्षाओं में फेल होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या 33 फीसदी से कम नहीं हो पा रही। हायर सेकंडरी का परिणाम 2013 में 65 प्रतिशत रहा, जबकि 2018 में 67 प्रतिशत। हाईस्कूल में पास होने वालों ने ऊंची छलांग लगाई है, फिर भी फेल होने वाले 34 प्रतिशत हैं। 2013 में 51 फीसदी के मुकाबले 2018 में 66 फीसदी विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए। सरकार कमियां छिपाने के लिए ‘रुक जाना नहीं’ जैसे अभियान से दिलासा देती रही।

टॉपर्स की जुबानी
शिक्षकों की कमी बड़ा रोड़ा: ललित
गणित से 12वीं बोर्ड परीक्षा में प्रदेश में पहला स्थान पाने वाले ललित पचौरी ने बताया कि स्कूल में शिक्षकों की कमी को पूरा करना चाहिए। हमारी कक्षा में कुछ विषयों के अतिथि शिक्षक बाद में रखे गए। केमेस्ट्री सहित अन्य विषय के नियमित शिक्षक हों तो, कक्षाएं शुरू होने के साथ ही सभी विषयों की बेहतर पढ़ाई हो सकेगी। स्कूल में लैब तो थी, लेकिन लेब टेक्नीशियन और टीचर नहीं होने से एक या दो बार ही प्रैक्टिकल कर पाए।

शिक्षकों की भी मॉनिटरिंग हो
हाईस्कूल की मप्र टॉपर अनामिका साध विदिशा के शासकीय उत्कृष्ट विद्यालय में पढ़ी हैं। वह कहती हैं कि इस स्कूल की पढ़ाई बहुत अच्छी है, लेकिन सभी सरकारी स्कूलों में जरूरी है कि विद्यार्थियों की अध्ययन और शिक्षकों की अध्यापन गतिविधियों की मानीटरिंग हो। कमजोर बच्चों को अधिक समय देकर उन्हें भी तैयार कराया जाए। यह भी जरूरी है कि बच्चों की हर जिज्ञासा शांत करने के लिए शिक्षक भी तैयारी करें। प्रतियोगी परीक्षाओं की नींव भी यहीं तैयार हो तो और बेहतर हो सकता है।

 

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मेरिट: हाईस्कूल में चार गुना मेधावी
प्रदेश में प्रतिभाओं का उत्कृष्ट प्रदर्शन जरूर उम्मीदें जगाता है। हाईस्कूल में पिछले पांच साल में प्रतिस्पर्धा का स्तर इतना बढ़ा कि मेरिट लिस्ट चार गुना से भी अधिक बड़ी हो गई। 2013 की मेरिट में 40 परीक्षार्थी थे, जबकि 2018 में 181 परीक्षार्थी।

 

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27 फीसदी स्कूलों में बिजली कनेक्शन
प्रदेश में 2013 की तुलना में बिजली कनेक्शन वाले स्कूलों की संख्या दोगुनी हुई है। फिर भी यह आंकड़ा 52 फीसदी तक ही पहुंचा है। अगर प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों को भी मिला दें तो यह औसत 27 प्रतिशत का है। इसका असर यह है कि कंप्यूटर सहित दूसरे इलेक्ट्रानिक उपकरण स्थापित नहीं हो पा रहे हैं। छात्रों को स्कूलों में कौशल निखारने का मौका नहीं मिल रहा है। 30 प्रतिशत स्कूलों में खेल मैदानों की भी कमी बनी हुई है।

 

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प्राथमिक स्तर से ही सब कुछ ध्वस्त
शिक्षाविद्- अनिल सदगोपाल
कई साल से मध्यप्रदेश शिक्षा के गुणवत्ता सूचकांक में देश के 32 राज्यों में नीचे से दूसरे और तीसरे स्थान पर बना हुआ है। जब भी रैंकिंग जारी हुई बिहार, असम, उत्तरप्रदेश के आस-पास ही अपना प्रदेश रहता है। कोई निगरानी नहीं, अधोसंरचना पर ध्यान नहीं। शिक्षकों की कमी और उनमें गुणवत्ता का अभाव क्या सरकारों को नहीं दिखता है। परिणाम देखने से कुछ नहीं होगा। प्राथमिक से ही सारी व्यवस्थाएं खराब हैं। प्रदेश के स्कूलों की बरबादी वर्ष 2000 से ही शुरू हो गई थी। अब कुछ बचा ही नहीं। इंदौर और भोपाल में सरकारी स्कूल 80-90 के दशक में प्रवेश के लिए लंबी लाइन लगती थी। नेताओं और अफसरों से सिफारिश करानी पड़ती थी। स्कूलों की हालात अपने आप नहीं बिगड़े हैं, सरकार ने नियम निर्देश से इसे बिगाड़ा है। जानबूझकर निजी संस्थाओं को लाभ पहुंचाने के लिए यह सब किया गया है।

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