मानवीय मूल्यों को पेश कर विग्रह बाबू
नाटक सरकारी दफ्तर में पदस्थ क्लर्क विग्रह बाबू की कहानी है। जिसे अपनी दो बेटियों की शादी की चिंता सताई रहती है। वह घर से दूर रहकर नौकरी कर रहा है। गुजर-बसर के नाम पर उसके पास एक चादर-कंबल और एक पेटी में बंद चंद बर्तन है। जो खाना पकाने तक के लिए दूसरों के चूल्हों पर निर्भर है।
गरीबी के बीच भी वह अपना स्वाभिमान मरने नहीं देता। एक दिन उसकी मुलाकात दफ्तर में आए एक युवक से होती है। युवक उसकी स्थिति देख उसे अपने घर के स्टोर रूम में रहने के लिए प्रस्ताव रखता है। बाबू पैसे बचाने के लिए तत्काल इसके लिए तैयार हो जाता है। धीरे-धीरे मोहल्ले के लोगों से उसके अच्छे संबंध हो जाते हैं। सभी उसकी रहस्यमयी जीवन के बारे में जानने के लिए उसके पास आने लगते हैं।
परिवार की चिंता में पड़ जाता बाबू
वह अपनी जीवन की दास्तां मोहल्ले को लोगों को सुनाता है। वह बताता है कि वह दोनों बेटियों के लिए अच्छे वर की तलाश कर रहा है, लेकिन हर जगह से दहेज की मांग आने के कारण वह शादी नहीं कर पा रहा। एक दिन बाढ़ में उसके गांव में कई मकान गिरने की सूचना आती है। इस बीच ऑफिस में बॉस उसे नौकरी से निकालने की धमकी देता है। तभी उसे पता चलता है कि गरीबी के कारण होने वाले संबधी ने रिश्ता तोड़ दिया है। कमरे में बैठे-बैठे उसकी मौत हो जाती है।