जिन दोनों नेताओं ने संगठन के एक बार कहने पर मंत्रिमंडल से चुपचाप इस्तीफा दे दिया, वह आज विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मैदान में उतरने की चुनौती भाजपा को दे रहे हैं।
शैलेंद्र तिवारी की रिपोर्टभोपाल. भाजपा को अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करने में पसीना आ रहा है। चारों ओर से विरोध के बीच में उनके दिग्गज नेता बाबूलाल गौर और सरताज सिंह ने खुद ही बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। दोनों नेताओं ने साफ कर दिया है कि वह चुनाव लड़ेंगे, भाजपा से टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय ही मैदान में होंगे। सवाल यही है कि आखिरकार कुशाभाउ ठाकरे के दोनों अनुशासित शिष्य बगावत पर क्यों उतर आए? आखिर क्यों उन्होंने मुख्यमंत्री से लेकर सभी की मान—मनुहार को दरकिनार कर दिया। जिन दोनों नेताओं ने संगठन के एक बार कहने पर मंत्रिमंडल से चुपचाप इस्तीफा दे दिया, वह आज विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मैदान में उतरने की चुनौती भाजपा को दे रहे हैं।
इस हठ को समझने के लिए कुछ साल पहले जाना होगा। भाजपा ने उम्रदराज नेताओं को किनारे करना शुरू किया। शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी से हुई तो प्रदेश में ऐसे नेताओं की तलाश में प्रदेश सरकार के तीन मंत्रियों के नाम सामने आए…पहला बाबूलाल गौर, दूसरा सरताज सिंह और तीसरा कुसुम महदेले। आनन—फानन में एक दिन प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे आए और तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान के साथ सीधे बाबूलाल गौर और सरताज सिंह के घर पर गए और मंत्रिपद से इस्तीफा लेकर आ गए। दोनों नेताओं ने चुपचाप इस्तीफा दे दिया, बिना किसी शोर—शराबे के। कुसुम महदेले के लोधी वोटों में दखल को देखते हुए भाजपा उनका इस्तीफा लेने की हिम्मत नहीं कर पाई और खामोश रह गई।
लेकिन यह खामोशी तब टूट गई जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपने भोपाल दौरे में ही इन दोनों मंत्रियों के इस्तीफों पर जवाब देते हुए कहा कि 75 साल का कोई फार्मूला पार्टी का नहीं है। बस दोनों बुजुर्ग नेताओं ने हल्ला बोल दिया। लेकिन प्रदेश भाजपा ने उनकी आवाज नहीं सुनी, मुख्यमंत्री से लेकर हर जगह उन्हें दरकिनार कर दिया गया। यहां तक कि संगठन में भी उपेक्षा शुरू हो गई। बस यहीं से इस बात की पटकथा लिख गई थी कि यह दोनों बुजुर्ग नेता दिन देखकर हमलावर जरूर होंगे। सरताज सिंह और बाबूलाल गौर ने मौके—बे—मौके कहा भी था, पार्टी के लिए पूरा जीवन दिया…लेकिन इस तरह दूध की मक्खी की तरह फेंका जाएगा…इसकी कल्पना भी नहीं थी। हटाना था तो भरोसा में लेकर हटाते…धोखा देकर क्यों हटाया। दोनों नेताओं के निशाने पर सीधे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान रहे। वजह भी साफ थी, दोनों नेताओं की रवानगी में मुख्यमंत्री की भूमिका सबसे अहम थी और उनके इस अपराध को अपने गले ओढ़ने वाला कोई नेता भी नहीं था। यहां पर एक बात याद रखने वाली है कि मुख्यमंत्री ने जब भी कड़वे फैसले लिए, उसे ओढ़ने के लिए उन्होंने हमेशा किसी नेता को आगे किया। लेकिन ऐसा पहली दफा था कि इस फैसले को अपने पर लेने के लिए कोई आगे नहीं आया।
उस समय मुख्यमंत्री मजबूत थे तो दोनों नेताओं की बातों को दरकिनार कर दिया गया। लेकिन आज जब पूरे प्रदेश में भाजपा मुश्किल के दौर से गुजर रही है। बागियों ने खुद का इकबाल बुलंद कर रखा है…उस दौर में इन दोनों नेताओं ने भी खामोशी के साथ आडवाणी बनने से साफ इनकार कर दिया है। इसके पीछे वजह भी है…भाजपा ने उम्र के नाम पर दूसरे लोगों को घर बैठाया, लेकिन टिकट उनके घर के भीतर ही दे दिए। मसलन, मेहरबान सिंह रावत को घर बैठाया तो उनकी बहू को टिकट दे दिया। गौरीशंकर शेजवार का टिकट काटा तो उनके बेटे मुदित को दे दिया। हर्ष सिंह का टिकट काटकर उनके बेटे को ही दिया गया। ऐसे में बाबूलाल गौर अपनी बहू की वकालत क्यों नहीं करेंगे? वह भी चाहते हैं कि उनकी बहू कृष्णा गौर को उनकी सीट से टिकट दिया जाए। सरताज सिंह भी यही चाहते हैं कि राजनीति से विदाई इस तरह से तो न की जाए। यही वजह है कि जब नरेंद्र सिंह तोमर ने उन्हें मनाने के लिए फोन किया तो उनका जवाब का अंदाज बड़ा तल्ख था। हालांकि मध्यप्रदेश में बुजुर्ग नेताओं को विदा करने की यह परंपरा भी नहीं रही। सुंदरलाल पटवा, लक्ष्मीनाराण शर्मा, कैलाश सारंग से लेकर कैलाश जोशी तक नेताओं की लंबी फेहरिस्त है, बड़े नेता जब सक्रिय राजनीति से रुखसत हुए तो उनकी राजनीति उनके बेटों और घर के भीतर ही संभला दी गई। ऐसे में मध्यप्रदेश की राजनीति के यह दोनों अजातशत्रु भला क्यों खामोशी से विदा हो जाएं। कुल मिलाकर भाजपा दोनों नेताओं को आडवाणी बनाने पर तुली है…राजनीति में अब आडवाणी होने का मतलब साफ है, खामोशी के साथ राजनीति के नेपथ्य में जीवन जीना। ऐसे में दोनों नेताओं के विरोध ने साफ कर दिया है कि इतनी खमोशी के साथ आडवाणी नहीं हो पाएंगे।