बुजुर्ग शांति और भंवरी ने बताया कि यह परंपरा परिवार में पीढिय़ों से चली आ रही है। अब यह संस्कार बहू-बेटियां नई पीढ़ी को भी दे रही हैं। महिलाएं पशु-पक्षियों के लिए पानी पहुंचाती हैं, ताकि कोई जीव प्यास से न मरे। महिलाएं वापसी में पेड़ों की छांव में बैठकर कहानी, कथा, हरजस एवं बातपोशी की पुरानी परंपरा को आगे बढ़ाती हैं। परमेश्वरी, मंजू, शोभा, कमला, सीता, वीना, विजयलक्ष्मी, पेमी आदि ने बताया कि पर्यावरण दिवस तो वर्ष में एक दिन मनाया जाता है, लेकिन हम तो वैशाख शुरू होते ही गोचर में पानी पहुंचाने का काम शुरू कर देती हैं। मंजू सोलंकी ने बताया कि शादी के बाद ससुराल में दादीसास, सास को ऐसा करते देखा और मैंने भी शुरू कर दिया।हमारे साथ छोटे बच्चे भी बोतलों में पानी भरकर लाते हैं और पाळसियों में डालते हैं।
आबादी क्षेत्र गोचर से सटा होने से क्षेत्रवासियों का जीव-जंतुओं से नजदीक का नाता है। दर्जनों महिलाओं के दिन की शुरुआत पशु-पक्षियों की प्यास बुझाने के लिए गोचर में पानी पहुंचाने से होती है। सुबह और शाम ढलने पर महिलाओं के समूह सिर पर पानी की मटकियों से गोचर में बनी खेळियों में पानी डालती है। उम्रदराज महिलाएं मटकी सिर पर रखकर ज्यादा आगे नहीं जा पाती तो वे आगे जाने वाली महिलाओं का उत्साहवद्र्धन करती हैं। उनके लौटकर आने तक वहीं मंडली बनाकर बैठ जाती हैं और पर्यावरण संरक्षण के पारंपरिक गीत गाती हैं।
पानी डालने के बाद वापसी में महिलाएं समूह बनाकर गीत गाती हैं, जिसमें पर्यावरण संरक्षण और पशु-पक्षियों के प्रति उनका स्नेह झलकता है। ‘भाग बड़ो घर आई म्हारी तुलछां, आंगणिये में तुलछा, मंदिर में तुलछांÓ, ‘म्हारो अगलो जन्म सुधारो, पहाड़ां रा बद्रीनाथ, पहाड़ चढऩता म्हारा गोडा दुखे लकड़ ले लो साथÓ, Óसोच रही मन म, समझ रही मन म थारो म्हारो न्याव होवे ला सत्संग मंÓ आदि गीत गाकर महिलाएं भगवान को रिझाने का भी प्रयास करती हैं।